Book Title: Kavyashiksha
Author(s): Vinaychandrasuri, Hariprasad G Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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________________ 148] काव्यशिक्षा रसभावाभासाःनिरिन्द्रियेषु तिर्यगादिषु चारोपाद् रसभावाभासौ / [ सू० 50 ] निरिन्द्रिययोः संभोगारोपणात् संभोगाभासो यथा पर्याप्तपुष्पस्तबकस्तनीभ्यः स्फुरत्प्रवालौष्ठमनोहराभ्यः / लतावधूभ्यस्तरवोऽप्यवापुर्विनम्रशाखाभुजबन्धनानि // 56 // [ कुमारसंभव स० 3, श्लो० 39] विप्रलम्भारोपणाद्विप्रलम्भाभासो यथा वेणीभूतप्रतनुसलिला तामतीतस्य सिन्धुः / पाण्डुच्छाया तटरुहतरुभ्रंशिभिः शीर्णपणैः / 10 . सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती कार्य येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः // 57 // [ मेघदूत श्लो० 29] भावावासो यथा---- गुरुगर्भभरक्लान्ताः स्तनन्त्यो मेघपङ्क्तयः / . 15 . अचलाधित्यकोत्सङ्गमिमाः समधिशेरते // 58 // [ काव्यानुशासन श्लो० 159 ] तिरश्चोः संभोगाभासो यथा मधु द्विरेफः कुसुमैकपात्रे पपौ प्रियां स्वामनुवर्तमानः / शृङ्गेण संस्पर्शनिमीलिताक्षी मृगीमकण्डूयत कृष्णसारः // 59 // 30 . [कुमारसंभव स० 3 श्लो० 36] यथा च—ददौ सरःपङ्कजरेणुगन्धि गजाय गण्डूषजलं करेणुः / ___ अर्थोपभुक्तेन बिसेन जायां संभावयामास रथाङ्गनामा // 60 // [कुमारसंभव स० 3, श्लो० 37] विप्रलम्भाभासो यथाआपृष्टासि व्यथयति मनो दुर्बला वासरश्री रेह्यालिङ्ग क्षपय रजनीमेकिकां चक्रवाकि /

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