Book Title: Kavivar Banarasidas aur Jivan Mulya Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 4
________________ २२२ डा० नरेन्द्र भानावत तिलक तोष माला विरति मुद्रा श्रुति छाप । इन लक्षण सो वैष्णव समुझे हरि परताप । मुसलमान वह है जो अपने मन का निग्रह कर उसे खुदा की ओर अभिमुख करता __ जो मन मुसे आपनो, साहिब के रुख होय। ज्ञान मुसल्ला गुह टिकै, मुसलमान है सोय ॥ उनकी दृष्टि में हिन्दू और तुरुक में कोई भेद नहीं है। दोनों एक हैं-- मन की द्विविधा मान कर भये एक सौ दोय । यह द्विविधा अर्थात् अज्ञान और भ्रम ही वर्ण-भेद, रंगभेद और ऊँच-नीच का भेद बनाये हुए हैं। बनारसीदास का निम्न कथन सम्पूर्ण मानव जाति को एक सूत्र में बाँधने के लिये आज भी मार्ग-दर्शक और प्रेरणादायक है-- तिनको द्विविधा, जे लखें, रंग-बिरंगी चाम । मेरे नैनन देखिये, घट-घट अन्तर राम ।। वस्तुतः कवि ने सतत स्वाध्याय करते हुए, वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्ष्या और धर्म कथा को आत्मसात कर लिया था। धर्म को उन्होंने कहा ही नहीं है बल्कि जीवन में धारण किया है। इसी स्तर पर वे भेद में अभेद और द्वैत में अद्वैत की अनुभूति कर सके। धर्म और अध्यात्म के स्तर पर उनका समता भाव, उन्हें परम प्रेमानुभूति में निमग्न कर गया, जहाँ आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता होऊँ मगन मैं दरसन पाय । ज्यों दरिया में बूंद समाय । पिय को मिलौं अपनयो खोय। ओला गल पाणी ज्यों होय । पिय मोरे घट मैं पिय माँय। जल तरंग ज्यों द्विविधा नाय । कविवर बनारसीदास के समय में राम, कृष्ण और शिव भक्ति का विशेष बोलबाला था। इनमें परस्पर साम्प्रदायिक निग्रह भी था। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने "रामचरित मानस' में शिव और राम की भक्ति को परस्पर पूरक बताते हुए राम को शिव का और शिव को राम का उपासक-उपास्य बताया है। कवि बनारसीदास में भी यह समन्वयवादी स्वर मुखरित है। एक ओर उन्होंने विराजै रामायण घट मांहि कह कर राम कथा की आध्यात्मिकता को आत्मस्थ किया है तो दूसरी ओर यह प्रतिपादित किया कि जीव ही शिव है अपने विशुद्ध परम चेतन रूप में और शिव पूजा वस्तुतः आत्मपूजा ही है। शिव के स्वरूप का यह रूपकात्मक चित्रण देखिये-- शक्ति विभूति अंग छवि छाजै । तीन गुपति तिरशूल विराजै ।। कंठ विभाव विषम विस सोहे। महामोह विषहर नहिं पौहै ।। संजम जटा सहज सुख भोगी। निहचै रूप दिगम्बर जोगी। ब्रह्म समाधि ध्यान गृह साजै, तहाँ अनाहत डमरू बाजै ।। तुलसीदास ने अपने आराध्य राम को सर्वोपरि मान कर भी गणेश, सीता, गंगा-जमुवा चित्रकूट आदि सभी की स्तुति की है। पर सबसे मांगी राम-भक्ति ही है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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