Book Title: Kavivar Banarasidas aur Jivan Mulya Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 2
________________ डा० नरेन्द्र भानावत कवि का प्रारम्भिक जीवन परिग्रह- संकुल है । वह आधि-व्याधि से ग्रस्त है । कभी संग्रहणी रोग है तो कभी चेचक का आतंक । कभी चोर डाकुओं का भय है, तो कभी प्राण रक्षा के लिए बनिये होकर भी ब्राह्मण बनने का स्वांग है । कवि व्यापारी है, धन-दौलत के लिए वह नानाविध कठिनाइयों, आपत्तियों, आशंकाओं से घिर कर भी अपना व्यापार-अभियान चलाता है । पर उसमें अभीष्ट सफलता नहीं मिलती । जीवन रत्नाकर में वह पैठता है, हाथ-पांव पछाड़ता है, पर हृदय की आँख खुली न होने से अतल गहराई में निहित रत्नों को प्राप्त नहीं कर पाता । उसे चारों ओर झाग ही झाग मिलते हैं, दिखाई देते हैं भोंदू भाई ! समुझ सबद यह मेरा । :-- जो तू देखे इन आँखिन सों तामें कछू न तेरा ॥ ए आँख भ्रम ही सौं उपजी, भ्रम ही के रस पागी । जहँ- जहँ भ्रम, तहँ तहँ इनको श्रम, तू इन्हीं को रागी ॥ ए आँखें दोउ रची चाम की, चाम ही चाम बिलौवें । ताकी ओट मोह निद्रा जुत, सुपन रूप तू जोवैं ॥ इन आँखिन को कौन भरोसो, ए विनसँ छिन मांही । है इनको पुद्गल सौं परचं, तू तो पुद्गल नांही ॥ जब पुदुगल से परे अविनाशी से, 'चाम' से परे अपने 'स्वाम' से सम्बन्ध जुड़ता है, तब सतत प्रकाशमान आत्मगुण- रत्नों से साक्षात्कार होता है । इसके लिए चाहिए हृदय की आँख और उससे देखने की कला -- २२० भोंदू भाई ! देखि हिये की आखें । जै करसैं अपनी सुख संपत्ति, भ्रम की संपत्ति नाखै ॥ जै आंखे अमृत रस बरखें परखै केवलि बानि । जिन आंखिन विलोकि परमारथ, होहिं कृतारथ प्राणि ॥ कहना न होगा कि कवि बनारसीदास जी हिये की आँखों से वस्तु, व्यक्ति और परि स्थिति को देखने का सामर्थ्य प्राप्त करते हैं और उन्हें धर्म के नाम पर प्रचलित ढोंग, आउ म्बर, प्रदर्शन, अन्धविश्वास आदि सब निरर्थक और प्रतिगामी लगते हैं । ये बाह्य वेश-भूषा को महत्त्व न देकर आन्तरिक भावना को महत्त्व देते हैं- 'भेष में न भगवान, भगवान भाव में' । शुद्धता ही उनके लिए सिद्ध पद का आधार बनती है - 'शुद्धता में वास किये; सिद्ध पद पावै है' । अब वे उपभोक्ता संस्कृति के नहीं; उपयोगमूलक जीवन-दृष्टि के उपासक बन जाते हैं कवि बनारसीदास द्वारा रचित 'अर्द्ध कथानक' यों तो १७वीं शती के एक मध्यमवर्गीय व्यापारी की आत्म कथा के माध्यम से तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन का दस्तावेज प्रतीत होता है, उसमें जगह-जगह जीवन की विद्रूपताओं एवं सामाजिक विकृतियों को उभारा गया है । कवि अपनी दुर्बलताओं और मूर्खताओं का बेहिचक चित्रण कर, युगीन सामाजिक विसंगतियों को घनीभूत करता है । इस दृष्टि से 'अर्द्ध कथानक सामाजिक इतिहास लेखकों के लिए जीवंत, विश्वसनीय और प्रामाणिक सामग्री प्रस्तुत करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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