Book Title: Kavivar Banarasidas aur Jivan Mulya
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 6
________________ २२४ डा० नरेन्द्र भानावत अर्थात् मांस ग्रन्थि स्तनों को स्वर्ण कलश कहना, श्लेषमा के घर मुख को चन्द्र कहना, हड्डी के दातों को हीरा-मोती कहना, मांस-पिण्ड ओठ को बिम्बफल कहना, हाड़ के दण्डों रूप भजा को कमल-नाल और कामदेव की पताका, जंघा को केले का वृक्ष कहना सरासर झूठ है। फिर ऐसे कवियों को सरस्वती का उपासक क्यों कर कहा जाय ? कहा जाता है कि बनारसीदास जी ने स्वयं प्रारम्भ में शृगारिक रचनाएँ लिखी थीं पर बाद में जब उन्हें वास्तविक बोध हुआ तब उन रचनाओं को गोमदी नदी में फेंक दिया। यथार्थ बोध होने पर कवि बनारसीदास ने काव्य शास्त्र में मान्य स्थायी भावों की नई प्ररूपणा भी की है। उन्होंने शृगार रस का स्थायी भाव शोभा, हास्य रस का आनन्द, करुण रस का कोमलता, रौद्र रस का संहार, वीर रस का पुरुषार्थ, भयानक का चिन्ता, वीभत्स रस का ग्लानि, अद्भुत रस का आश्चर्य और शान्त रस का वैराग्य माना है: - शोभा में सिंगार बसै, वीर पुरुषारथ में, कोमल हिये में करुणा रस बखानिये । आनन्द में हास्य, रुण्ड-मुण्ड में बिरज रुद्र. विभत्स तहाँ, जहाँ गिलानि मन आनिये। चिन्ता में भयानक, अथाहता में अद्भुत, माया की अरुचिता में, शान्त रस मानिये । ये ई नव रस भव रूप ये ई भाव रूप. इनको विलछिण सुरष्टि जागे जानिये । कहने की आवश्यकता नहीं कि शृगार के पारस्परिक स्थायी भाव रति की अपेक्षा शोभा अधिक व्यापक है। इसमें वासना का नहीं, आत्म की शोभा का उल्लास भाव उमड़ा पड़ता है। हास्य रस का स्थायी भाव आनन्द, हास की अपेक्षा अधिक मनोवैज्ञानिक है। क्योंकि आनन्द में किसी की विवशता, दुर्बलता या विकृति पर हँसी नहीं फूटती। आन्तरिक आनन्दोल्लास की हँसी का कारण होता है। करुण रस का स्थायी भाव कोमलता, शोक की अपेक्षा अधिक युक्तिसंगत है । शोक में चिन्ता व्याप्त होती रहती है जब कि कोमलता में दया और मैत्री भाव अनुस्यूत रहता है । वीर रस का स्थायी भाव पुरुषार्थ उत्साह की अपेक्षा अधिकार मनोवैज्ञानिक है । उत्साह घट-बढ़ सकता है। पर पुरुषार्थ में आन्तरिक वीरत्व सतत बना रहता है । भयानक रस का स्थायी भाव चिन्ता, भय की अपेक्षा अधिक युक्तियुक्त है क्योंकि चिन्ता के अभाव में भय का उत्पन्न होना सम्भव नहीं। इस प्रकार बनारसीदास ने स्थायी भावों के सम्बन्ध में अपना मौलिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जो अधिक मनोवैज्ञानिक एवं स्वाभाविक प्रतीत होता है। नवरसों के पारमार्थिक स्थानों का संकेतबनारसीदास ने इस प्रकार किया है: गुन विचार सिंगार, वीर उधम उदार रुख । करुणा सम रस रीति, हास हिरदै उछाइ मुख । अष्टकाम दल मलन, रुद्र वरनै तिहि थानक । तन विलेछ वीभच्छ, छन्द मुख दसा भयानक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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