Book Title: Kavivar Banarasidas aur Jivan Mulya
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 5
________________ कविवर बनारसीदास और जीवन-मूल्य २२३ मांगत तुलसीदास कर जोरे, बसह राम सिय मानस मोरे ॥ इसी प्रकार बनारसीदास ने शिव आदि की स्तुति करते हुए भी सबका समाहार वीतराग देव की भक्ति में ही किया है। वीतराग भक्ति के नाम पर उनके समय में बाह्य कर्म-काण्ड, ढोंग, पाखंड आदि बढ़ गया था। सच्ची साधुता दूषित हो चली थी। पूजा के नाम पर हिंसा और प्रदर्शन प्रधान बन गया था। यही कारण है कि उन्होंने तुलसीदास आदि अन्य कवियों की तरह किसी कथा को लेकर कोई प्रबन्ध काव्य नहीं लिखा और अपनी ही जीवन कथा को ही प्रबन्ध का रूप दिया। यह एक प्रकार से निःशल्य होने की स्वैच्छिक अन्तःशल्य चिकित्सा थी। इसी भावना से बनारसीदास ने साधुता के नाम पर वणिकवृत्ति चलाने वाले यतियों और मुनियों की कटु आलोचना की और सच्ची साधुता का स्वरूप लोक मानस के समक्ष प्रस्तुत किया जो सब जीवन को रखवाल । सो सुसाधु बंटुक तिरकाल । मृषावाद नहीं बोले रत्ती। सो जिन मारग सांचा जती॥ सदय हृदय साधै शिव पंथ । सो तपीश निर्भय निर्ग्रन्थ । दत्त अदत्त न फरसै जोय । तारण तरण मुनीश्वर सोय । पूजा के नाम पर द्रव्य पूजा ही प्रमुख बन गई और उसमें निहित आत्मभाव विसुप्त हो गया। कवि बनारसीदास ने पूजा की पवित्रता की रक्षा के लक्ष्य से उसके प्रतीकार्य को स्पष्ट किया और बताया कि अष्ट प्रकार की जिन-पूजा में जल मन की उज्ज्वलता का, चन्दन स्वभाव की शीतलता का, पुष्प कामदहन का, अक्षत अक्षय गुणों का, नैवेद्य व्याधिहरण का, दीपक आत्मज्ञान का, धू कर्मदहन का और फल मोक्ष पुरुषार्थ का प्रतीक है। एक अन्य स्थल पर कवि ने समरसता को जल, कषाय-उपशम को चन्दन कहा है समरस जल अभिषेक करावै। उपशम रस चन्दन घसि सावै। सहजानन्द पुण्य उप जावै । गुण गर्भित जयमास चढ़ावै ॥ कविवर बनारसीदास, धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं काव्य शास्त्र के क्षेत्र में भी समता, समरसता और प्रशांतता के पक्षधर हैं। शृगार रस के नाम पर व्यक्तियों को उत्तेजित कर विलासिता के रंग में निमग्न करने वाले शृगारिक कवियों की भर्त्सना करते हुए कहा-- मांस की ग्रन्थि कुच, कंचन कलस कहै, कहै मुख चन्द्र जो सलेषमा को धरू है। हाड़ के दशन माहि, हीरा मोती कहै ताहि, मांस के अधर ओठ, कहे बिंबफरु है । हाड़ दंभ भुजा कहै, कौल नाल काम धुजा, हाड़ ही के थंभा जंघा, कहै रंभा तरू है। यों ही झूठी जुगति बनावै और कहावै कवि, एते पै कहें हमें शारदा को वरू है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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