Book Title: Kashay Krodh Tattva Author(s): Kalyanmal Lodha Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 2
________________ जैन संस्कृति का आलोक देता है। अन्तरात्मा के चार प्रमुख दोषों (क्रोध, मान, माया, लोभ) में क्रोध ही प्रथम और निकृष्ट है - क्रोध प्रेम का नाश कर - घृणा, द्वेष और वैर का कारण है, मान विनय का, माया मैत्री का और लोभ सर्वनाशक है (दशवकालिक ८-३७)। आचाराङ्ग में बताया है - वीरेहि एवं अभिभूयं दिठं संजेतेहि सया जतेहि सया अप्प-मत्तेहिं (४ - ६८)। वीर साधना के विघ्नों को निरस्त करते हैं - संयम से इन्द्रिय और मन का निग्रह, यमी होकर क्रोध का दमन और अप्रमत्त होकर सदा जागरूक रहते हैं। कषाय विरति के लिए सूत्र हैं “से वंता कोहं च, माणं च, मायं च लोभं च' - साधक क्रोध, मान, माया लोभ का परित्याग करे। पुनः क्रोध, मान, माया लोभ का प्रेरक वर्णन है (शीतोष्णीय ३)। इसी से 'दुक्खं लोभस्स जाणित्ता'। संक्षेप में कषाय त्याग के लिए साधना, तप और एकाग्रता आवश्यक है “आंतरिक ज्ञान - प्रज्ञा से ही अप्रमादी और "कोह दंसी" बनना संभव है। आचार्य अमितगति ने - स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्" आस्रव का हेतु कर्म है - पुण्य और पाप आस्रव के लिए कहा गया है – “पुण्णस्सासव भूदा अणुकंपा सुद्धो उवजोओ" -- अनुकंपा और सद् प्रकृति से शुद्धोपयोग और पुण्य कर्मों का आस्रव होता है और चारों कषायों का क्षय। सुभाषित है “प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूराद् स्पर्शनं वरम्" - कीचड़ लगा कर धोने की अपेक्षा, न लगाना ही उत्तम और अपेक्षित है। आचार्य हस्ति ने (अध्यात्म आलोक पृ. १८६ में) पूर्वाचार्यों के कथन का उल्लेख किया है - मंजं विसय कसाया, निदा विकहा य पंचमी भणिया एए पंच पमाया जीवा पाउँति संसारे" प्रमाद में मनुष्य विवेकहीन हो जाता है - करणीय अकरणीय का ध्यान नहीं रहता और आत्मा के स्वरूप की हिंसा करता है। वेदनीय कर्म के उदय से होने वाली क्रोधिता रूप कलुषता कषाय है - वह हिंसा करती है। मिथ्यात्व सबसे बड़ा कषाय है। जिन जीवों के कषाय नष्ट हो चुके हैं, जो वीतरागी है उनकी सभी क्रियाएं ऐयापिथिकी हैं और जो क्रियाएं सांसारिक बन्धन को और कसती हैं, वे साम्प्ररायिकासव हैं। तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार "सकषाया-कषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः (६-५)। कषाय चारित्रिक मोहनीय कर्म बंध के हेतु हैं - वे आत्मा को उद्वेलित करते हैं। चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं -कषाय और नोकषाय । इनके भी अनेक भेद - प्रभेद हैं। उत्तराध्ययन के अनुसार कषाय के प्रत्याख्यान से वीतराग भाव उत्पन्न होता है और जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है (२६-३७) कषाय के लिए कहा गया है - होदि कसाउम्मतो उम्मतो तघ ण पित्त उम्मत्तो। ण कुणदि पित्तुम्मत्तो पावं इदरो जघुम्मतो। (भगवती आराधना १३३१) कषाय से उन्मत्त व्यक्ति पित्त से उन्मत्त व्यक्ति से भी अधिक तीव्र होता है - क्रोध पित्त निज छाती जारा तुलसीदास पुनः कहते हैं: काम क्रोध मद लोभ न जाके। तात निरन्तर वश में ताके। जिस प्रकार नाव के छिद्र को रोक देने से नाव डूब नहीं सकती उसी प्रकार कषायों के अवरूद्ध होने से सभी आश्रव अवरुद्ध हो जाते हैं। कषाय पुनर्जन्म वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं "चत्तारि ए ए कसिणा कसाया सिचंति मूलाई पुण भवस्स" (द - ८-३६) "प्रकर्षण मादयति जीवं येन स प्रमादः" कषाय : क्रोध तत्त्व ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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