Book Title: Kashay Krodh Tattva
Author(s): Kalyanmal Lodha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 16
________________ अन्तर्दर्शन व विवेकीकरण की यही आधार भूमि है । विवेक-विचार, उचित-अनुचित का ज्ञान सदाचार के लिए अनिवार्य है । आचारांग में महावीर बार-बार विवेक सहित संयम में रत हो जीवन पथ पर चलने का उपदेश देते हैं। साहिस्साम नाणं वीराणं समियाणं सहियाणं सया जयाणं संघडदंसिणं आतोवरयाणं अहाता लोयं समुवेहमाणाणं । । जो वीर है, क्रियाओं में संयत हैं, विवेकी हैं, सदैव यलवान हैं, दृढ़दर्शी व पाप कर्म से निवृत्त हैं और लोक को यथार्थ रूप में देखते हैं - ज्ञान और अनुभवपूर्ण तत्त्वदर्शी को उपाधि नहीं होती। शुक्ल ध्यान के चार लक्षणों में विवेक तीसरा लक्षण है। जैन सिद्धान्तों के अनुसार इन्द्रिय विषयों और कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्म-दर्शन करता है - उसी को तप धर्म होता है। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति । क्रोध के परिहार के लिए जैन धर्म ज्ञान, ध्यान और तप पर बल देता है । ... ज्ञान, ध्यान और तप का विपुल विवेचन जैनागमों में उपलब्ध है। जैन शिक्षा पद्धति जीवन निर्माण का नियामक और धारक तत्व है । शिक्षा सूत्र के अनुसार पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती । शिक्षा के लिए ८ आवश्यक उपायों में सत्यरत रहना, अक्रोधी होना, अशील न होना, विशील न होना और इन्द्रिय और मनोविजय मुख्य है। इस सूत्र में भावों के सद्भाव के निरूपण में जो श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा गया है, जिसके दस भेद उल्लिखित हैं। इन सबके साथ जैन साधना की परम उत्कृष्ट पद्धति है - सामायिक । सामायिक का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है " समय " अर्थात् आत्मा के निकट पहुँचना । बाह्य प्रभावों मुक्त होकर अतल आंतरिक क्षमता और शक्ति प्राप्त करना। यह सामायिक महत्व का अकाट्य प्रमाण है । “समभावो सामइयं तण-कंचण - सत्तुमित्तविसओति” कषाय : क्रोध तत्त्व Jain Education International जैन संस्कृति का आलोक तृण और स्वर्ण में, शत्रु और मित्र में समभाव ही सामायिक है। अर्थात् सर्वभूतों के प्रति समभाव । 'षडावश्यक' में सामायिक का प्रथम स्थान है । एकीभाव द्वारा बाह्य परिणति से आत्माभिमुख होना सामायिक है । सामायिक समत्व है (अर्थात् रागद्वेष से परे, मानसिक स्थैर्य और अनुकूल-प्रतिकूल में मध्यस्थ भाव रखना | संयम, नियम, तप में संलग्न रहना सामायिक है । जब वैर घृणा, द्वेष, विरोध आक्रामक वृत्ति ही नहीं रहेगी, तब कहां से आएगा क्रोध कषाय । उत्तराध्ययन (२४-८) में सामायिक के प्रश्न पर “सामाइएणं भंते, जीवे किं जयइ ।” उत्तर में वीर प्रभु कहते हैं “सामाइएणं सावज जोग-विरई जणयइ” समस्त प्राणियों के प्रति समभाव, शत्रु-मित्र, दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, निन्दा - प्रशंसा, संयोगवियोग, मानापमान में राग-द्वेष, का अभाव सामायिक समता की साधना है । समभाव में स्थिर होना ही सामायिक है। गीता में "समत्वं योग उच्यते" से भी यही तात्पर्य है । जो अपनी आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुँचा दे । वही सामायिक है । (सूत्रकृताङ्ग १-२ ) | ज्ञान, संयम, तप इनसे जीव का जो प्रशस्त समभाव है - वही सामायिक है (दृष्टव्य मूलाचार, नियमसार) । मनोविज्ञान ने जहां क्रोध का उपचार बताया है यहाँ जैन - विज्ञान उपचार और परिहार के साथ-साथ उसके रूपान्तरण और आन्तरिक क्रियाशीलता के द्वारा व्यक्तित्व के सम्यक् विकास का निरूपण भी किया है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परमोत्कर्ष ही इस रूपान्तरण और क्रियाशीलता का लक्ष्य है। ज्ञान से पदार्थों का ज्ञान, दर्शन से श्रद्धा और चारित्र से कर्मास्रव का निरोध होता है । तीनों एक दूसरे के पूरक हैं । चारित्र के बिना ज्ञान व दर्शन के बिना चारित्र कुछ भी अर्थ नहीं रखते। बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त होना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। धर्म, दर्शन और अध्यात्म के साथ जैन मनोविज्ञान अनुपम और अनन्य है । For Private & Personal Use Only १०६ www.jainelibrary.org

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