Book Title: Kashay Krodh Tattva Author(s): Kalyanmal Lodha Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 9
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि क्षमारहित होकर कभी शांति नहीं पा सकता (यमक वग्गो - ३-४)। ललितविस्तर (४-१-१६) में कहा है "क्षान्त्या सौरभ्य सम्पन्ना" -- क्षमा की सुगन्ध से, सुरभि से सुगन्धित हो। बुद्ध कहते हैं जब कोई व्यक्ति अत्यधिक क्रोध की स्थिति में हो और यदि वह अभिज्ञ है कि वह क्रुद्ध हो तो उसी क्षण उसका क्रोध समाप्त हो जाता है। समस्त कषायों के लिए अभिज्ञ होना उनको दूर करना है। बुद्ध का ध्येय है 'महात्याग शील व्रत शान्ति वीयं वलां', अर्थात् शील, क्षमा, तेज, बल और दान से भव सागर पार करना है। बौद्ध धर्म का मैत्री व करुणा मुदिता का सिद्धान्त भी परोक्ष रूप में क्षमा है. जिससे अमत रस का पान होता है। शांतिदेव कारिका में कहते हैं - "क्षमेत श्रुतमेषेत संप्रयते वनं तत्" इसकी व्याख्या में कहा गया है कि शांति से बड़ा कोई तप नहीं है - द्वेष सहस्रों कामों के शुभ कर्म को नष्ट करता है। श्रद्धा, रुचि, अनुश्रव, आकार परिवितकं, दृष्टि विधान-शांति - ये पांच धर्म इसी जन्म के विपाक वाले हैं। भारतीय वाङ्गमय में क्षमा को समस्त दुष्कर्मों के प्रतिहार के साथ - साथ क्रोध के पाप कर्म से मुक्ति माना गया है। महाभारत में (अनुशासन पर्व २३-८६ में) व्यास कहते हैं - "क्षमावन्तश्च धीराश्च धर्मकार्येषु चोत्थिताः" जो क्षमा के सदाचार से युक्त हैं वे स्वर्ग को जाते हैं। सुभाषित हैं – “अक्रोधस्तेजः - क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता" - क्षमा प्रभुता का भूषण है। भर्तृहरि ब्राह्मण का गुण बताते हुए कहते हैं "शान्तो दान्तो दयालुश्च ब्राह्मणस्य गुणः स्मृतः।" क्षमा वीरस्य भूषणम् – यह तो प्रसिद्ध ही है। इस संबंध में विष्णु पुराण (१-१८-४२) में प्रह्लाद कहता है कि जो मुझे मारने को आए, विष दिया, आग में जलाया, दिग्गजों से पीड़ित किया, सों से डंसाया, उन सबके प्रति मैं समान मित्र भाव से रहा हूँ और कभी पाप बुद्धि नहीं हुई हो तो ये सब पुरोहित जी उठे। श्री कृष्ण ने गीता में जिन देवी सम्पदाओं का वर्णन किया है उनमें अनुद्वेग, प्रिय और हितकारक वचन वाणी तप कहा गया है - अनुढेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।" यही सदाचार है और क्षमा का स्वरूप है। यजुर्वेद (३६ - १८) में ऋचा है -- मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहि । विश्व मैत्री की इस प्रार्थना का मूल अक्रोध, अद्वेष के साथ सर्वत्र शांति, सर्वव्यापी प्रेम और क्षमा है। विदुर नीति में कहा है कि क्षमा ही शांति का श्रेष्ठ उपाय है - क्षमैका शान्तिरुत्तमा"। विदुर पुनः कहते हैं 'क्षमा सब के लिए हितकारी है - क्षमेत शक्तः सर्वस्य शक्तिमान धर्मकारणात् । ___ अर्थानों समौ यस्य तस्य नित्यं क्षमा हिता। (७-५८) तितिक्षा और क्षमा में परस्पर संबंध है। तितिक्षा का एक अर्थ क्षमा भी है। आचार्य हस्ति ने (उत्तराध्ययन भाग-२ पृष्ठ २५७ में) शान्ति के दो अर्थ लिए हैं - क्षमा और सहिष्णुता । सहिष्णुता और तितिक्षा होने पर व्यक्ति की सहन शक्ति बढ़ जाती है और वह परीषहों पर विजय पा लेता है। इस प्रकार के श्रमण धर्म में शान्ति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव हैं। शान्ति अर्थात् क्षमुष सहने क्षम्यते सह्यते इति शान्तिः"। अन्यत्र कहा है - "क्षान्त्या क्षमया क्षमते न त्वसमर्थतया यः सः शान्तिः क्षमः। (कल्प सूत्र-४-५) इहादौ वचनं शान्तिः धर्मः क्षान्तिरनंन्तरम् । अनुष्ठानं वचनानुष्ठानात्स्याद् संगतम् ।।। उपकारापकाराभ्यां विमोकाद्ववचनात्तया। धर्माच्च समये शान्तिः पंचधा हि प्रकीर्तिता ।। (अभिधान राजेन्द्र) | १०२ कषाय : क्रोध तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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