Book Title: Karmvad Ek Vishleshatmak Adhyayan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ १८ ] [ कर्म सिद्धान्त ____ सुप्रसिद्ध प्राच्य-विद्याविशारद कीथ ने सन् १९०६ की रॉयल एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका में एक बहुत ही विचारपूर्ण लेख लिखा था। उसमें वे लिखते हैं- "भारतियों के कर्म बन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है। संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है। जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह यह उक्त सिद्धान्त जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता।" जैन दर्शन का मन्तव्य : कर्मवाद के समर्थक दार्शनिक चिन्तकों ने काल आदि मान्यताओं का सुन्दर समन्वय करते हुए इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि जैसे किसी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर नहीं अपितु अनेक कारणों पर अवलंबित है वैसे ही कर्म के साथ-साथ काल आदि भी विश्व-वैचित्र्य के कारणों के अन्तर्गत समाविष्ट हैं। विश्व-वैचित्र्य का मुख्य कारण कर्म है और काल आदि उसके सहकारी कारण हैं । कर्म को प्रधान कारण मानने से जन-जन के मन में आत्मविश्वास व आत्मबल पैदा होता है और साथ ही पुरुषार्थ का पोषण होता है । सुख-दुःख का प्रधान कारण अन्यत्र न ढूढ़कर अपने आप में ढूढ़ना बुद्धिमत्ता है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने लिखा है कि "काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पाँच कारणों में से किसी एक को ही कारण माना जाय और शेष कारणों की उपेक्षा की जाय, यह उचित नहीं है, उचित तो यही है कि कार्य निष्पत्ति में काल आदि सभी कारणों का समन्वय किया जाय।" इसी बात का समर्थन आचार्य हरिभद्र ने भी किया है। दैव, कर्म, भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में अनेकान्त दृष्टि रखनी चाहिए । प्राचार्य समन्त भद्र ने लिखा है-बुद्धिपूर्वक कर्म न करने पर भी इष्ट या अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होना देवाधीन है । बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है। कहीं पर दैव प्रधान होता है तो कहीं पर पुरुषार्थ । दैव और पुरुषार्थ के सही समन्वय से ही अर्थ सिद्धि होती है। जैन दर्शन में जड़ और चेतन पदार्थों के नियामक के रूप में ईश्वर या पुरुष की सत्ता नहीं मानी गई है। उसका मन्तव्य है कि ईश्वर या ब्रह्म को जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, संहार का कारण या नियामक मानना निरर्थक है। कर्म आदि कारणों से ही प्राणियों के जन्म, जरा और मरण आदि की सिद्धि की जा सकती है। केवल भूतों से ही ज्ञान, सुख, दुःख, भावना आदि चैतन्यमूलक धर्मों की सिद्धि नहीं कर सकते । जड़ भूतों के अतिरिक्त चेतन तत्त्व की सत्ता को मानना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। कभी भी मूर्त-जड़, अमूर्त-चैतन्य को उत्पन्न नहीं कर सकता । जिसमें जिस गुण का पूर्ण रूप से प्रभाव है उस गुण को वह कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि इस प्रकार नहीं माना जाये तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10