Book Title: Karmvad Ek Vishleshatmak Adhyayan Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 6
________________ २२ ] [ कर्म सिद्धान्त कहलाती है पर वह विज्ञप्ति रूप है, प्रत्यक्ष है । यहाँ पर कर्म का तात्पर्य मात्र प्रत्यक्ष प्रवृत्ति नहीं, किन्तु प्रत्यक्ष कर्मजन्य संस्कार है । बौद्ध परिभाषा में इसे वासना और विज्ञप्ति कहा है । मानसिक क्रियाजन्य संस्कार कर्म को वासना कहा है और वचन एवं कायजन्य संस्कार कर्म को अविज्ञप्ति कहा है । विज्ञानवादी बौद्ध कर्म को वासना शब्द से पुकारते हैं । प्रज्ञाकर का अभिमत है कि - जितने भी कार्य हैं वे सभी वासनाजन्य हैं । ईश्वर हो या कर्म (क्रिया) प्रधान (प्रकृति) हो या अन्य कुछ, इन सभी का मूल वासना है । ईश्वर को न्यायाधीश मानकर यदि विश्व की विचित्रता की उपपत्ति की जाए तो भी वासना को माने बिना कार्य नहीं हो सकता । दूसरे शब्दों में कहें तो ईश्वर, प्रधान, कर्म इन सभी सरितानों का प्रवाह वासना-समुद्र में मिलकर एक हो जाता है । शून्यवादी मत के मन्तव्य के अनुसार अनादि अविद्या का अपर नाम ही वासना है । विलक्षण वर्णन : जैन साहित्य में कर्मवाद के सम्बन्ध में पर्याप्त विश्लेषरण किया गया है । जैन दर्शन में प्रतिपादित कर्म-व्यवस्था का जो वैज्ञानिक रूप है उसका किसी भी भारतीय परम्परा में दर्शन नहीं होता । जैन परम्परा इस दृष्टि से सर्वथा विलक्षण है । कर्म का अर्थ : कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया है । जो कुछ भी किया जाता है वह कर्म है । सोना, बैठना, खाना पीना आदि । जीवन व्यवहार में जो कुछ भी कार्य किया जाता है वह कर्म कहलाता है । व्याकरण शास्त्र के कर्ता पाणिनी ने 'कर्म' की व्याख्या करते हुए कहा- जो कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट हो वह कर्म है । वैशेषिक दर्शन में कर्म की परिभाषा इस प्रकार है- जो एक द्रव्य में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो, और जो संयोग या विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे । सांख्य दर्शन में संस्कार के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग मिलता है। गीता में कर्मशीलता को कर्म कहा है । न्याय शास्त्र में उत्क्षेषण, अपक्षेषण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन रूप पाँच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द व्यवहृत हुआ है । स्मार्त विद्वान् चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्तव्यों को कर्म की संज्ञा प्रदान करते हैं । पौराणिक लोग व्रत नियम आदि धार्मिक क्रियाओं को कर्म रूप कहते हैं । बौद्ध दर्शन जीवों की विचित्रता के कारण को कर्म कहता है जो वासना रूप है । जैन परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है-भावकर्म और द्रव्यकर्म । रागद्वेषात्मक परिणाम अर्थात् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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