Book Title: Karmvad Ek Vishleshatmak Adhyayan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ 26 ] [ कर्म सिद्धान्त चेतन तत्त्वों के सम्मिश्रण से ही कर्म का निर्माण होता है। द्रव्यकर्म हो या भावकर्म उसमें जड़ और चेतन नामक दोनों प्रकार के तत्त्व मिले रहते हैं। जड़ और चेतन के मिश्रण हुए बिना कर्म की रचना नहीं हो सकती। द्रव्य और भावकर्म में पुद्गल और आत्मा की प्रधानता और अप्रधानता मुख्य है, किन्तु एक दूसरे के सद्भाव और असद्भाव का कारण मुख्य नहीं है। द्रव्यकर्म में पौदगलिक तत्त्व की मुख्यता होती है और आत्मिक तत्त्व गौण होता है। भावकर्म में आत्मिक तत्त्व की प्रधानता होती है और पौद्गलिक तत्त्व गौण होता है / प्रश्न है द्रव्यकर्म को पुद्गल परमाणुओं को शुद्ध पिण्ड मानें तो कर्म और पुद्गल में अन्तर ही क्या रहेगा ? इसी तरह भावकर्म को आत्मा की शुद्ध प्रवृत्ति मानी जाय तो आत्मा और कर्म में भेद क्या रहेगा? उत्तर में निवेदन है कि कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व पर चिन्तन करते समय संसारी आत्मा और मुक्त आत्मा का अन्तर स्मरण रखना चाहिए। कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का सम्बन्ध संसारी आत्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं है / संसारी आत्मा कर्मों से बंधा है, उसमें चैतन्य और जड़त्व का मिश्रण है / मुक्त आत्मा कर्मों से रहित होता है और उसमें विशुद्ध चैतन्य ही होता है / बद्ध आत्मा की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण जो पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर परस्पर एक-दूसरे के साथ मिल जाते हैं, नीरक्षीरवत् एक हो जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं / इस तरह कर्म भी जड़ और चेतन का मिश्रण है। प्रश्न हो सकता है कि संसारी आत्मा भी जड़ और चेतन का मिश्रण है और कर्म में भी वही बात है, तब दोनों में अन्तर क्या है ? उत्तर है कि संसारी प्रात्मा का चेतन अंश जीव कहलाता है और जड़ अंश कर्म कहलाता है / वे चेतन और जड़ अंश इस प्रकार के नहीं हैं जिनका संसार-अवस्था में अलगअलग रूप से अनुभव किया जा सके / इनका पृथककरण मुक्तावस्था में ही होता है / संसारी आत्मा सदैव कर्म युक्त ही होती है / जब वह कर्म से मुक्त हो जाती है तब वह संसारी आत्मा नहीं, मुक्त आत्मा कहलाती है। कर्म जब आत्मा से पृथक् हो जाता है तब वह कर्म नहीं शुद्ध पुद्गल कहलाता है / आत्मा से सम्बद्ध पुद्गल द्रव्यकर्म है और द्रव्यकर्म युक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकर्म है। गहराई से चिन्तन करने पर आत्मा और पुद्गल के तीन रूप होते हैं- (1) शुद्ध आत्माजो मुक्तावस्था में है, (2) शुद्ध पुद्गल, (3) आत्मा और पुद्गल का सम्मिश्रणजो संसारी आत्मा में है / कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का सम्बन्ध अात्मा और पुद्गल की सम्मिश्रण अवस्था में है / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10