Book Title: Karmvad Ek Vishleshatmak Adhyayan Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 7
________________ कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन ] [ २३ कषाय भावकर्म कहलाता है । कार्मण जाति का पुद्गल जड़तत्त्व विशेष जो कि कषाय के कारण आत्मा-चेतन तत्त्व के साथ मिल जाता है द्रव्यकर्म कहलाता है | आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है - प्रात्मा के द्वारा प्राप्त होने से क्रिया को कर्म कहते हैं । उस क्रिया के निमित्त से परिणमन - विशेष प्राप्त पुद्गल भी कर्म है । कर्म जो पुद्गल का ही एक विशेष रूप है, आत्मा से भिन्न एक विजातीय तत्त्व है । जब तक प्रात्मा के साथ इस विजातीय तत्त्व कर्म का संयोग है, तभी तक संसार है और इस संयोग के नाश होने पर प्रात्मा मुक्त हो जाती है । विभिन्न परम्परानों में कर्म : जैन परम्परा में जिस अर्थ में 'कर्म' शब्द व्यवहृत हुआ है, उस या उससे मिलते-जुलते अर्थ में भारत के विभिन्न दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । वेदान्त दर्शन में माया, अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग हुआ है । मीमांसा दर्शन में अपूर्व शब्द प्रयुक्त हुआ है । बौद्ध दर्शन में वासना और विज्ञप्ति शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । सांख्यदर्शन में 'आशय' शब्द विशेष रूप से मिलता है । न्याय-वैशेषिक दर्शन में प्रदृष्ट, संस्कार और धर्माधर्म शब्द विशेष रूप से प्रचलित हैं । दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी दर्शनों में हुआ है भारतीय दर्शनों में एक चार्वाक दर्शन ही ऐसा दर्शन है जिसका कर्मवाद में विश्वास नहीं है, क्योंकि वह आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं मानता इसलिए कर्म और उसके द्वारा होने वाले पुनर्भव, परलोक आदि को भी वह नहीं मानता है, किन्तु शेष सभी भारतीय दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म की सत्ता मानते ही हैं । । न्याय दर्शन के अभिमतानुसार राग, द्वेष और मोह इन तीन दोषों से प्रेरणा संप्राप्त कर जीवों में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है । ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं । वैशेषिक दर्शन में चौबीस गुण माने गये हैं उनमें एक प्रदृष्ट भी है । यह. संस्कार से पृथक् है और धर्म-अधर्म ये दो उसके भेद हैं । इस तरह न्यायदर्शन में धर्म-अधर्म का समावेश संस्कार में किया गया है । उन्हीं धर्म-अधर्म को वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट के अन्तर्गत लिया गया है । राग आदि दोषों से संस्कार होता है, संस्कार से जन्म, जन्म से राग आदि दोष और उन दोषों से पुन: संस्कार उत्पन्न होते हैं । इस तरह जीवों की संसार- परम्परा बीजांकुरवत् अनादि है । सांख्य योग दर्शन के अभिमतानुसार प्रविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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