Book Title: Karm ka Astittva
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 3
________________ कर्म का अस्तित्व ] [ २६ इस दृश्यमान विश्व में दो प्रकार के पदार्थ दिखाई देते हैं - चेतन (जीव ) और अचेतन (जड़ या अजीव ) । दोनों के गुण-धर्म, अस्तित्व और क्रियाएं पृथक्-पृथक् हैं । तब फिर इनमें विकार, विभिन्नता और अशुद्धता दिखने का क्या कारण है ? कारण है- विजातीय पदार्थ का संयोग । प्रत्येक पदार्थ के समान गुण-धर्म, निजी स्वभाव तथा उससे मेल खाने वाली क्रिया से सम्बन्धित पदार्थ सजातीय कहलाता है । तथा उस पदार्थ के स्वभाव, गुण धर्म तथा क्रिया से विपरीत स्वभाव, गुणधर्म या क्रिया वाला पदार्थ कहलाता है - विजातीय । सजातीय पदार्थों के संयोग से विकार पैदा नहीं होता, विकार पैदा होता है— सजातीय के साथ विजातीय पदार्थों के संयोग के कारण । जीव के लिए अजीव विजातीय पदार्थ है । जब जीव के साथ अजीव का संयोग होता है तो जीव ( आत्मा ) में विकार उत्पन्न होता है । निष्कर्ष यह है - कर्म नाम का यह अजीव ही एक विजातीय पदार्थ है, जो आत्माओं की शुद्धता को भंग करके उनकी स्थिति में भेद डालता है, विरूपता या विभिन्नता पैदा करता है । जैसे सौ टंची सोना शुद्ध है, सभी सोना स्वर्ण दृष्टि से समान है, लेकिन उसमें विजातीय तत्त्व 'खोट' मिल जाने पर विविधता या विरूपता पैदा हो जाती है । इसी प्रकार शुद्ध आत्मानों के साथ कर्म नामक विजातीय जीव पुद्गल मिल जाने से आत्मानों में विरूपता या विभिन्नता पैदा हो जाती है । विश्व की आत्माओं (जीवों) में अशुद्धता, विभिन्नता या विषमताओं का भी एक बीज है- विजातीय कारण है - जिसका स्वभाव आत्मा से अलग है, वह बीज (कारण) है - कर्म । इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया है 'कम्मुणा उवाही जायह' । ' कर्म बीज के कारण ही जीवों की नाना उपाधियां हैं, विविध अवस्थाएं हैं । आत्मा की विभिन्न सांसारिक परिणतियों - श्रवस्थाओं के लिए सभी आत्मवादी दार्शनिकों ने कर्म को ही कारण माना है । भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने इस प्रश्न का इसी प्रकार का उत्तर दिया है : -: 'कम्मश्रणं भंते ! जीवे, नो-प्रकम्मश्रो विमत्तिभावं परिणमई ? कम्मश्रणं, जओ णो प्रकम्म ओ विमत्तिभावं परिणमई | 2 १. आचारांग सूत्र १ । ३ । १ । २. भगवती सूत्र १२।५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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