Book Title: Karm ka Astittva Author(s): Madhukarmuni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 2
________________ २८ ] [ कर्म सिद्धान्त सूत्रानुसार आत्मा जब आत्मा है तो उसका रूप एक-सा होना चाहिए। इतनी विरूपता और विचित्रता क्यों ? एक ही तत्त्व में दो विरोधी रूप नहीं होने चाहिए। यदि हैं तो उनमें से कोई एक ही रूप मौलिक एवं वास्तविक होना चाहिए। दोनों तो वास्तविक एवं मौलिक नहीं हो सकते । अतः आत्मा के किस रूप को वास्तविक माना जाए ? अन्धकार और प्रकाश दोनों एक नहीं हो सकते। इसका समाधान जैनदर्शन ने इस प्रकार किया है-आत्माओं की यह विभिन्नता, विविधता या विरूपता उनकी अपनी नहीं है, स्वरूपगत नहीं है। आत्मा तो शुद्ध सोना है। मूलत: उसमें कोई भेद नहीं है, किसी भी प्रकार की विविधता या विरूपता नहीं है। जो आत्मा का स्वरूप निगोद के जीव में है, वही स्वरूप नारकी, तिर्यंचों, देवों और मनुष्यों की आत्मा का है, वही स्वरूप मोक्षगत मुक्त आत्माओं का है, इसमें तिलमात्र भी भेद नहीं है । अध्यात्म जगत् के विश्लेषणकार जैन कवि द्यानतरायजी कह रहे हैं : जो निगोद में सो मुझ मांही, सोई है शिवथाना । 'द्यानत' निहचे रंचभेद नहीं, जाने सो मतिवाना ।। आपा प्रभु जाना, मैं जाना। __ अतः यह निश्चित सिद्धान्त है कि द्रव्य दृष्टि से, अर्थात् अपने मूल स्वरूप से सभी आत्माएं शुद्ध हैं,' एक स्वरूप हैं,२ अशुद्ध कोई नहीं है । जो अशुद्धता है, विरूपता है, भेद है, विभिन्नता है, वह सब विभाव से-पर्याय दृष्टि से है। जिस प्रकार जल में उष्णता बाहर के तेजस् पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार प्रात्मा में भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, सुख-दु:ख आदि की विरूपता-विभिन्नता बाहर से आती है, अन्दर से नहीं। अन्दर में हर पात्मा में चैतन्य का प्रकाश जगमगा रहा है। प्रश्न होता है, आत्माओं में विभिन्नता, विरूपता या अशुद्धि अहेतुक या आकस्मिक है या सहेतुक-सकारणक ? यदि अशुद्धता को अहेतुक माना जाए तो फिर वह कभी दूर नहीं हो सकेगी, क्योंकि वह फिर सदा के लिए रहेगी। ऐसी स्थिति में आत्मा में सुषुप्त परमात्म तत्त्व को जगाने, आत्मा के अनन्त प्रकाश को आवत्त करने वाले आवरणों से मुक्ति पाने की साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिए जल में आई हुई उष्णता की तरह आत्मा में आई हुई अशुद्धता सहेतुक है, अहेतुक नहीं। १. सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया'-द्रव्य संग्रह । २. एगे आया-स्थानांग सू०१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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