Book Title: Karm ka Astittva
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 5
________________ कर्म का अस्तित्व ] [ ३१ एक सरीखी मिट्टी और एक ही कुम्हार द्वारा बनाये जाने वाले घड़ों में विभिन्नता पाई जाती है, वैसे ही एक सरीखे साधन होने पर भी मानवों में जो अन्तर पाया जाता है, उसका कोई न कोई कारण होना चाहिए, गौतम ! विविधता का वह कारण कर्म ही है। पंचाध्यायी में इसी सिद्धान्त का समर्थन किया गया है ___एको दरिद्र एको हि श्रीमानिति च कर्मणः ।' कर्म की सिद्धि में यही अकाट्य प्रमाण है-इस संसार में कोई दरिद्र है तो कोई धनी (यह कर्म के ही कारण है)। ' आत्मा को मणि की उपमा देते हुए तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में इसी तथ्य का उद्घाटन किया गया है 'मलावृतमणेव्यक्तिर्यथानेकविचेक्ष्यते । कर्मावृतात्मनस्तद्वत् योग्यता विविधा न किम् ! '२ जिस प्रकार मल से प्रावृत्त मणि की अभिव्यक्ति विविध रूपों में होती है, उसी प्रकार कर्म-मल से प्रावृत्त प्रात्मा की विविध अवस्थाएं या योग्यताएं दृष्टिगोचर होती हैं। दूसरी बात यह है कि अगर कर्म को नहीं माना जाएगा तो जन्मजन्मान्तर एवं इहलोक-परलोक का सम्बन्ध घटित नहीं हो सकेगा। अगर संसारी आत्मा के साथ कर्म नाम की किसी चीज का संयोग नहीं है, और सभी आत्माएं समान हैं, तब तो सबका शरीरादि एक सरीखा होना चाहिए, सबको मन, बुद्धि, इन्द्रिय तथा भौतिक सम्पदाएं एवं वातावरण आदि एक सरीखे मिलने चाहिए, परन्तु ऐसा कदापि सम्भव नहीं होता, इसलिए कर्म को उसका कारण मानना अनिवार्य है। इसी दृष्टि से 'आचारांग सूत्र' में आत्मा को मानने वाले के लिए तीन बातें और मानना आवश्यक बताया है 'से आयावादी लोगावादी कम्मावादी किरियावादी' 3 ___ जो आत्मवादी (आत्मा को जानने-मानने वाला) होता है वह लोकवादी (इहलोक-परलोक आदि मानने वाला) अवश्य होता है। जो लोकवादी होता है, उसे शुभ-अशुभ कर्म को अवश्य मानना होता है, इसलिए वह कर्मवादी अवश्य १. पंचाध्यायी २।५० । २. तत्त्वार्थ श्लोक वा० १६१ । ३. आचारांग सूत्र १, सूत्र ३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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