Book Title: Karm ka Astittva
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ कर्म का अस्तित्व । युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जैनदर्शन या कई अन्य दर्शन आत्मा को अपने शुद्ध मूल स्वभाव की दृष्टि से समान मानते हैं । मूलतः आत्माओं के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। परन्तु विश्व के विशाल मंच पर सभी धर्मों और दर्शनों के व्यक्तियों से लेकर साधारण जनता तक सभी का यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि सभी आत्माएं एक-सी नहीं हैं, एकरूप नहीं हैं। जिधर दृष्टि दौड़ाते हैं, उधर ही विविधता, विचित्रता और विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इन विभिन्नताओं की दष्टि से ही धर्मशास्त्रों में ४ गतियां और ८४ लाख जीव-योनियां मानी गई हैं। सभी गतियों और योनियों की परिस्थिति भी एक-सी नहीं है। कोई पशु-पक्षी रूप में है तो कोई मनुष्य रूप में है, कोई देवता रूप में है तो कोई नारकजीव के रूप में है। इतना ही नहीं, एक ही तरह के प्राणियों में भी हजारों-लाखों भेद की रेखाएं हैं। एक मनुष्य जाति को ही ले लें, उसमें भी कोई क्रूर है, तो कोई दयालु है, कोई सरलता की मूर्ति है तो कोई कुटिलता की प्रतिमूर्ति, कोई संयमी है तो कोई परले दर्जे का असंयमी; कोई लोभी-लालची है तो कोई सन्तोषी उदार है; कोई राग-द्वष से अत्यन्त लिप्त है, तो कोई वीतराग है। मनुष्यों में भी शरीर, मन, बुद्धि, धन आदि को लेकर भी असंख्य भिन्नताएं हैं । कोई शरीर से दुबला-पतला है तो कोई हट्टा-कट्टा, मोटा-ताजा, कोई सुन्दर सुरूप है तो कोई काला कुरूप है, कोई जन्म से ही रोगी है, तो कोई बिलकुल स्वस्थ एवं नीरोगी है ; किसी का शरीर बिलकुल बेडोल, बौना, अंगहीन है, तो किसी का सुडोल, कदावर एवं पूर्णांग है। कोई अल्पायु है तो कोई चिरायु, कोई रोब वाला है, तो कोई सर्वथा प्रभावहीन । कोई अहंकार का पुतला है तो कोई नम्र एवं निरभिमान । कोई मायावी एवं कपटी है तो दूसरा बिलकुल सरल, निश्छल एवं निष्कपट । कोई दुःख की भट्टी में बुरी तरह तप रहा है, जबकि कोई सुख चैन की बंसी बजा रहा है । कोई निपट मूर्ख, निरक्षर भट्टाचार्य है, तो कोई बुद्धिमान और प्रतिभाशाली है। किसी के पास धन का ढेर लगा हुआ है तो कोई पैसे-पैसे के लिए मुहताज हो रहा है। कोई छोटा है तो कोई बड़ा । कोई बालक है, कोई युवक है, कोई वृद्ध है। प्रश्न है कि यह विभिन्नता क्यों ? 'एगे आया' (आत्मा समान है) के १. स्थानांग सूत्र सू० १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7