Book Title: Karm aur Karmfal
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 4
________________ १४८ ] [ कर्म सिद्धान्त उसे अपने जीवन को व्यतीत करना है तब तो जो कुछ पूर्व कर्मों द्वारा निर्धारित हो चुका है, जीवन का स्वरूप वैसा ही रहेगा । फिर जैनदर्शन के भाग्यवादी होने में क्या आशंका हो सकती है ? इस प्रकार के प्रश्नों का उठना सहज ही है । यह निश्चित है कि कर्म का फल मनुष्य को भोगना ही पड़ता है और ये फल पूर्व निर्धारित होते हैं किन्तु साथ ही जैन दर्शन जीवन के स्वरूप- गठन में कर्म के साथ-साथ पुरुषार्थ की भूमिका को भी समान ही महत्त्व देता है । प्रारब्ध का होना तो इस दर्शन में माना ही जाता है किंतु यह भी माना जाता है कि व्यक्ति अपने इसी जीवन के कर्मों द्वारा इसी जीवन के लिये सुख-दुःखादि विधान भी कर सकता है । ये कर्म अविलम्ब फल देने वाले होते हैं और यही पुरुषार्थ है। जैन दर्शन को एकांगी रूप से भाग्यवादी नहीं कहा जा सकता । पिछले कर्मों के फल विधान स्वरूप जो व्यवस्था निर्धारित हो जाती है वैसा ही मनुष्य का यह जीवन होता है और यह व्यवस्था अज्ञात भाग्य के नाम से जानी जाती है । जीवन धारण करते समय आत्मा का जो कर्म समुदाय होता है वह अपने फलानुसार एक रूप रंग, भावी जीवन के लिये तैयार कर देता है । यदि व्यक्ति भाग्यवादी ही रहा तो वह पूर्वकृत कर्मों के फल ही भोगता रह जाता है । इसके विपरीत यदि व्यक्ति पुरुषार्थ प्रयोग द्वारा अपने जीवन को इच्छित रंग, रूप देने लगता है तो उसके ये नये कर्म जीवन को पूर्व विधान की अपेक्षा कुछ और ही कर देते हैं । ये कर्म तुरंत और इसी जीवन में फल देने वाले होते हैं । यही कारण है कि जीवन का पूर्व निर्धारित रूप पिछड़ जाता है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ द्वारा भी पूर्व कर्मों के फलों को स्थगित नहीं कर पाता । वे फल तो उसे भोगने ही पड़ेंगे । जब पुरुषार्थ दुर्बल हो जायगा यह कर्मफल उदित होने लगता है । ये कर्मफल बीच-बीच में पुरुषार्थ के फलों को भी अनुकूल-प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते रहते हैं । कर्मचक्र और उसका स्थगन : कर्म के संबंध में जीवन को किसी उपन्यास के कथानक के समतुल्य कहा जा सकता है कथानक की एक घटना अपने पहले वाली घटना के परिणाम स्वरूप ही घटित होती है और यह परिणाम स्वरूप घटित घटना भी आगामी घटना के लिए आधार बनती है । कर्मचक्र भी इसी प्रकार गतिशील रहता है । जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष का परिणाम पुनः बीज रूप में प्रकट हो जाता है । कर्म के परिणाम स्वरूप फल उदित होते हैं । इन कर्मों को भोगते-भोगते आत्मा द्वारा कुछ कर्म और अर्जित हो जाते हैं जो कालान्तर में अथवा आगामी जन्म में अपने फल देते हैं । स्पष्ट है कि इससे तो आत्मा कर्माधीन लगती है । श्रात्मा स्वतंत्र नहीं है कर्म करने के लिएं । अब यहाँ यह प्रश्न भी विचारणीय हो जाता है कि कर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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