Book Title: Karm aur Karmfal Author(s): Rajendramuni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 2
________________ १४६ ] [ कर्म सिद्धान्त क्या ईश्वर कर्म-फल प्रदान करता है ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । भारतीय जन एवं कतिपय दर्शनों की यह सामान्य मान्यता है कि ईश्वर ही फल का दाता है। जैनदर्शन की मान्यता इससे ठीक विपरीत है। जैन दर्शन ईश्वर जैसी किसी सत्ता को सुख-दुःख का कर्ता नहीं स्वीकारता। इसमें तो प्रात्मा की ही सर्वोच्चता है। प्रात्मा ही स्वयं के लिये भविष्य तैयार करती है, वह स्वयं नियन्ता है। ईश्वर में विश्वास करने वाले मानते हैं कि आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है; पर फल तो उसे वैसा ही मिलेगा जैसा ईश्वर चाहेगा। यही कारण है कि ईश्वर की कृपा के लिये ही अधिक प्रयत्न किये जाते हैं। इनके अनुसार तो अशुभ कर्मों के फल भी शुभ हो जाते हैं। जीवन भर पापाचार में लिप्त रहने वाला अजामिल भी ईश्वर कृपा से अन्ततः मोक्ष को प्राप्त हो गया। जैन धर्म इस विचार को भ्रामक और असत्य मानता है। इसका यह सिद्धान्त अटल है कि जैसे कर्म होंगे, उनके फल भी निश्चित रूप से वैसे ही होंगे। साथ ही अशुभ कर्मों के फल को भी कोई शक्ति टाल नहीं सकती। सत्य तो यह है कि कर्म स्वयं ही अपना फल देते हैं । अतः जैसा फल इच्छित हो, तदनुरूप ही कर्म किया जाना चाहिये । "ईश्वर ही फल प्रदान करता है" इस धारणा के पीछे कदाचित यह आधार रहा है कि प्राय: देखने में आता है कि अमुकजनों को उनके कर्मानुसार फल नहीं मिलता। और तुरन्त यह धारणा बना ली जाती है कि कर्मों के फल तो जैसे ईश्वर चाहता है वैसे देता है, किन्तु यह तात्कालिक विचार ही कहा जायेगा। अन्तिम सत्य का इसमें अभाव है। कर्मफल या कर्मानुरूप फल के अभाव से ईश्वर को मध्यस्थ या अभिकरण मानना उचित नहीं है । यहाँ यह स्पष्टतः समझ लेना उपयोगी रहेगा कि कर्म की फल प्राप्ति में विलम्ब हो सकता है । संभव है कि कुछ कर्म इसी जन्म में अपने फल देते हैं और कुछ कर्म आगामी जन्म में, यहाँ तक कि कभी-कभी तो फल-प्राप्ति अनेक जन्मों के पश्चात् होती है। उदाहरणार्थ, गजसुकुमाल मुनि को ६६ लाख जन्मों के अनन्तर कर्मों का उग्रफल भोगना पड़ा था। गौतम बुद्ध के पैर में काँटा लग गया था। इस पर उन्होंने कहा कि ८१ जन्म पूर्व मैंने एक व्यक्ति पर भाले का प्रहार किया था। उस अशुभकर्म का फल ही आज मुझे इस रूप में प्राप्त हुआ है । प्रस्तु, मात्र इस कारण कि कर्मानुसार फल की प्राप्ति तत्काल होते न देखकर यह मानना असंगत है कि फल कर्म के अनुसार नहीं होते, अथवा ईश्वर फल का दाता है। और वह अशुभ कर्मों के भी शुभ फल और शुभ कर्मों के भी अशुभ फल दे सकता है । अशुभ कर्मों का यदि हम शुभ फल भोगते हुए देखते हैं तो इसमें परिस्थिति यह रहती है कि इस समय जो फल भोगा जा रहा है, वह इस समय के कर्मों का फल नहीं है। पूर्वकृत शुभ कर्मों के फल उसे इस समय मिल रहे हैं। चाहे इस समय उसके अशुभ कर्म ही क्यों न हों ? और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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