Book Title: Karm aur Karmfal Author(s): Rajendramuni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 6
________________ 150 ] [ कर्म-सिद्धान्त अबाधित असामान्य गति वाला दिखायी देने लग जाता है। द्रव्य कर्म भोगते समय यदि भावकर्म उत्पन्न ही न होने दिये जाँय तभी यह सिलसिला रुक सकता है / पूर्वकृत कर्मों के फल भोगते समय जो कर्म हो जाते हैं वे पुनः आगामी फलों का पूर्वनिर्धारण कर देते हैं। यदि फल भोग के समय हम समभाव रखें, उनके प्रति प्रात्मा में राग-द्वेष न आने दें तो नवीन कर्म बंधन अस्तित्व में नहीं आयेंगे। अजस्र गतिशील प्रतीत होने वाला यह कर्मचक्र रुक जायेगा। इस प्रकार सर्वथा कर्मक्षय कर आत्मा अनंतसुख मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर सकती है / यह लक्ष्य मनुष्य साधना से स्वयं ही प्राप्त करता है / कोई अन्य शक्ति उसे यह सद्गति नहीं प्रदान कर सकती। आत्मा का अजेय वर्चस्व कर्म सिद्धान्त द्वारा स्थापित होता है। व्यक्ति स्वयं ही अपना भाग्य निर्माता है। कर्म उसके अस्त्र हैं। कर्मों के सहारे वह स्वयं को जैसा बनाना चाहे बना सकता है। सवैया एक जो नार शृंगार करे नित, एक भरे है परघर पाणी / एक तो ओढ़त पीत पीताम्बर, एक जो अोढ़त फाटी पुरानी // एक कहावत बांदी बड़ारण, एक कहावत है पटराणी / कर्म के फल सब देख लिये, अब ही नहीं चेते रे मूरख प्राणी / / कवित्त रुजगार बणे नांय, धन्न नहीं घरमांय, खाने को फिकर बह, नार मांगे गहणो / लेणायत फिर-२ जाय, उधारो मिलत नाय, आसामी मिल्या है चोर, देवे नहीं लेवणो / / कुपुत्र जुवारी भया, घर खर्च बढ़ गया, सपूत पुत्र मर गया, ज्यां को दुख सहणो / पुत्री ब्याव योग भई,परणाई सोविधवाथई, तो भी ना आयो वैराग, वीने कांई केवणो / / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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