Book Title: Karm aur Karmfal Author(s): Rajendramuni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 5
________________ कर्म और कर्मफल ] . [ १४६ और आत्मा में कौन अपेक्षाकृत अधिक बलवान है ? हम सामान्यत: पाते हैं कि आत्मा कर्मों के फल भोगने में लगी रहती है और एक के बाद एक जन्म ग्रहण करती रहती है। ये कर्म ही हैं जो आत्मा को काम, क्रोध, मोहादि मलों में लिप्त कर देते हैं। कर्म ही किसी आत्मा को उज्ज्वल हो सकने का अवसर देते हैं। इन परिस्थितियों में कर्म की सबलता दिखायी देती है । कर्म ही आत्मा पर हावी रहते हैं-ऐसा प्रतीत होता है। पर यथार्थ में कर्म की शक्ति कुछ नहीं है। आत्मा ही बलवान है। आवश्यकता इस बात की है कि आत्मा को तेजोमय और ओजपूर्ण किया जाय फिर तो आत्मा कर्म पर नियंत्रण करने की पात्रता अजित कर लेगी । आत्मा द्वारा बाह्य कर्मों के प्रवेश को निषिद्ध किया जा सकता है । यह आत्मा ही है जो अपने बंधन कर्मचक्र को स्थगित कर सकती है, काट सकती है । आत्मा की कर्मों पर विजय ही तो मोक्ष प्राप्ति है । कर्म क्षय की योग्यता जब आत्मा में है तो कर्म निश्चित ही आत्मा की अपेक्षा निर्बल हैं। हाँ, कर्म का परिणाम फल और फल का परिणाम कर्मरूप में उदित अवश्य होता है और इस प्रकार कर्मचक्र अजस्र गति से चलता रहता है किंतु उपयुक्त पात्रता पाकर आत्मा इस गति को समाप्त कर देती है। संयम और तप से आत्मा को यह शक्ति प्राप्त होती है। कर्मचक्र की अटूट गति से यह नहीं समझना चाहिये कि प्रत्येक आत्मा के लिए उसका यह क्रम शाश्वत ही रहेगा। वस्तुतः आत्मा कर्मचक्र में ग्रस्त कैसे होती है, इस प्रसंग को समझना इस सारे प्रसंग को सुगम बना सकता है। राग, द्वेष, माया, लोभ, क्रोधादि आवेगों के कारण आत्मा कर्म के बंधनों में बद्ध हो जाती है। व्यक्ति चाहे तो अपनी आत्मा को इस बंधन से मुक्त रख सकता है। उसे इन विकारों से ही बचना होगा। यह भी सत्य है कि एक बार आबद्ध हो जाने पर भी वह स्वयं अपने प्रयास से मुक्त हो सकता है । ऐसे संकल्पधारियों के लिए भगवान् महावीर का यह संदेश परम सहायक सिद्ध हो सकता है कि "प्रात्मा का हित चाहने वाला पापकर्म बढ़ाने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार विकारों को छोड़ दे।" क्रोध, मान, माया, लोभ ये वे मूल कारण हैं जिनके परिणामस्वरूप कर्म अस्तित्व में आते हैं। जब ये ही नष्ट कर दिये जाते हैं तो इनकी नींव पर अवस्थित कर्म-अट्टालिका स्वतः ही ध्वस्त हो जाती है। क्रोध को नष्ट करने के लिये क्षमा, मान को नष्ट करने के लिए कोमलता का व्यवहार प्रभावकारी रहता है। इसी प्रकार माया पर सादगी से और लोभ पर संतोष से विजय प्राप्त की जा सकती है। वस्तुतः भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म उदित होते रहते हैं । यही शृखला अजस्रता के साथ चलती रहती है और परिणामत: यह चक्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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