Book Title: Karm Vipak
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 4
________________ कर्म विपाक ] [ १२१ प्राप्त हो सकती है। जो व्यक्ति शुभ कर्म के उदय के समय नम्रता और अशुभ कर्म के उदय के समय समभाव को बनाये रख सके, उसका बेड़ा पार है। सम्पूर्ण कर्मग्रंथ का सार भी यही है कि कैसे भी अशुभ कर्म के उदयकाल में अन्य किसी पर दोषारोपण न करते हुए उदय में आये हुए कर्म विपाक को समता भाव से भोग लेना। कर्म सत्ता का न्याय सब के लिए समान है। यदि जीव कर्म बांधने के समय सावधान हो जाय तो कर्मसत्ता का कोई नियम उसको प्रभावित नहीं कर सकता। उदयकाल में हाय-हाय करने से तो दुगणी सजा भोगनी पड़ती है। क्योंकि उदय में आये हुए कर्म विपाक के साथ आर्तध्यान का सम्मिलन हो जाने से अनेक नये कर्म बंध जाते हैं। अज्ञानी के कर्म क्षय का क्या मूल्य है ? वास्तविक निर्जरा तो ज्ञानी ही कर सकता है। कर्म के विपाक को समभाव पूर्वक भोग लेने से ज्ञानी को सकाम निर्जरा होती है, जबकि अज्ञानी को अकाम निर्जरा होती है। अकाम निर्जरा में बंध अधिक और निर्जरा कम होती है, जबकि सकाम निर्जरा में निर्जरा (कर्मक्षय) अधिक होती है। ज्ञानी सम्यकदृष्टि आत्मा अनेक जन्मों के संचित कर्मों को सम्यक् ज्ञान रूपी अग्नि में जलाकर भस्म कर देता है। इसीलिये ज्ञानी को नये कर्म नहीं बंधते, यदि बंधते हैं तो भी बहुत ही अल्प मात्रा में बंधते हैं। इस प्रकार ज्ञानी अपनी शृखला से धीरे-धीरे मुक्त होता जाता है और एक समय ऐसा आता है जब वह अपने सम्पूर्ण कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध बुद्ध हो जाता है। जीव जो कर्म विपाक भोगता है, वह उन-उन कर्मों के उदय में आने पर भोगता है। प्रत्येक कर्म अपने-अपने स्वभाव के अनुसार फल-विपाक देते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म के उदयकाल में जीव का ज्ञान गुण आवरित हो जाता है, जिससे वह कुछ भी लिख पढ़ नहीं सकता। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का उदय जीव के दर्शन गण (देखने की शक्ति) को ढंक देता है। वेदनीय कर्म सुखदुःख का अनुभव करता है । इसके उदय में सुख के साधन विद्यमान होने पर भी जीव सुख का अनुभव नहीं कर सकता। कोई भी कर्म अन्य कर्म के स्वभावानुसार विपाक न देकर स्वयं अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्म फल देता है। सामान्यतः कर्मफल को भोगने में मुख्य हेतु उस कर्म का उदय काल ही होता है, पर द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य सामग्री भी उसके भोग को प्रभावित करती है। जैसे किसी को गाली देने से अशुभ भाषा के पुद्गल कषाय के उदय का कारण बनते हैं और अयोग्य आहार शारीरिक अशान्ति के उदय का कारण बनता है । जीव स्वयं अज्ञान से कर्म बंध करता है, अतः उनके अच्छे या बुरे फल को भी उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है। बाह्य सामग्री भी उसमें कारणभूत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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