Book Title: Karm Vipak
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 7
________________ १२४ ] [ कर्म सिद्धान्त आदि पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होता है। किन्तु इस गुणस्थान के अन्तमुहूर्त का काल समाप्त होने पर यदि उसकी मृत्यु हो तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी गिर सकता है। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले कई चरमशरीरी भी होते हैं। ऐसे जीव ११वें गुणस्थान से गिरकर ७वें पर आते हैं और फिर क्षपक श्रेणी प्रारम्भ करते हैं। जिन्होंने मात्र एक बार ही उपशम श्रेणी की हो, वे ही जीव दूसरी बार क्षपक श्रेणी कर सकते हैं। क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाली आत्मा का सामर्थ्य अद्भुत होता है। उस की ध्यानाग्नि अत्यन्त जाज्वल्यमान होती है, जिसमें कर्मरूपी काष्ठ जलकर भस्म हो जाते हैं । प्राचार्य उमास्वाति ने 'प्रशमरति' शास्त्र में कहा है क्षपकश्रेणिमुपरिगतः, स समर्थसर्वकर्मिणां कर्म । क्षपयितुमेको यदि कर्मसंक्रमः, स्यात् परकृतस्य । क्षपक श्रेणी पर आरूढ आत्मा की ध्यानाग्नि इतनी प्रखर होती है कि यदि दूसरे जीवों के कर्मों का उसमें संक्रमण हो सकता हो तो वह अकेला सब जीवों के कर्मों के क्षय करने में समर्थ हो सकता है। किन्तु कर्म का तो नियम ही ऐसा है कि जो बांधता है। वही उसे भोगता है। यदि ऐसा न हो तो कर्म सिद्धान्त में सब गड़बड़ घोटाला हो जाय और द्रव्य की स्वतंत्रता ही लुप्त हो जाय । अतः यह निश्चित ही है कि कर्ता ही भोक्ता होता है। क्षपक श्रेणी में कषाय मोहनीय आदि कर्म प्रकृतियों का क्षय होता है, अतः इस पर आरूढ़ आत्मा का कभी पतन नहीं होता, जबकि उपशम श्रेणी में तो इन कर्म प्रकृतियों का उपशम होता है (दब जाती हैं), इसीलिये ११वें गुणस्थान से जीव निश्चय ही नीचे गिरता है । इस गुणस्थान पर कर्म प्रकृतियाँ दब जाती हैं, पर सत्ता में तो रहती ही हैं, अतः उनका उदय होने पर जीव नीचे गिरता है । इससे कर्मसत्ता के सामर्थ्य का पता लगता है। अपने स्वरूप में अत्यन्त जागृत आत्मा ही कर्मसत्ता से टक्कर ले सकती है। राख से दबी हुई अग्नि कभी न कभी तो निमित्त पाकर भड़क ही उठती है, इसी प्रकार दबे हुए कर्म भी ऐसे भड़कते हैं कि चढ़ती हुई आत्मा को भी गिरा देते हैं। विष बेल की जड़ यदि गहरी जायेगी तो उससे क्या लाभ होगा ? इसी प्रकार दोषों की जड़ यदि गहरी जायेगी तो उससे आत्मा को हानि ही होगी। जैसे आँख में गिरा हुआ एक छोटा सा रेत का कण जब तक नहीं निकलता तब तक चुभता रहता है, वैसे ही हमारे दोष हमें प्रतिपल चुभते रहना चाहिये । बाह्य शत्रुओं से होने वाली हानि से तो हम सदा सावधान रहते हैं, किन्तु हमारे आन्तरिक शत्रु कषायों से इससे भी अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। बाह्य शत्र तो अधिक से अधिक एक जन्म ही बिगाड़ेंगे किन्तु कषाय रूपी अंतरंग शत्रु तो जन्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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