Book Title: Karm Vipak
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ १२० ] [ कर्म सिद्धान्त तृष्णाग्रस्त व्यक्ति के सभी तप, जप, ध्यान, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि व्यर्थ हो जाते हैं। एक बार आचरित सामान्य पाप कर्म का कम से कम फल दस गुरणा हो जाता है और यदि उसे तीव्र रस के साथ आचरित किया गया हो तो उसका विपाक करोड़ गुणा हो जाता है। अनंतानुबन्धी कषाय के तीव्र उदय में कभीकभी अंतर्मुहूर्त के समय में भी ऐसा कठिन कर्म बंध हो जाता है कि जीव को उसके फल को अनेक जन्मों तक भोगना पड़ता है। कई बार व्यक्ति की क्षण मात्र की भूल अनन्त संसार को बढ़ा देती है। अतः कर्म बांधते समय व्यक्ति को अत्यधिक सावधान रहना चाहिये। अपने कुटुम्बियों के लिए अथवा अन्य किसी के लिये किये गए कर्मों का फल उदय में आने पर मात्र कर्ता को ही भोगना पड़ता है। कर्मों के कठिन विपाक भोगने के समय जीव अकेला हो जाता है। उस समय कुटुम्बियों में से कोई भी न तो उस विपत्ति से रक्षा करने में समर्थ हो सकता है और न ही दुःख में हिस्सा ही बँटा सकता है। हँसते-हँसते बाँधे गये कर्मों को उदय में आने पर रोते-रोते भोगना पड़ता है। कभी-कभी तो निकाचित बंधे हुए ये कर्म किसी भी प्रकार से नहीं छूटते । त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में भगवान् महावीर के जीव ने शयन कक्ष के द्वारपाल के कानों में तपा हुआ शीशा डलवाया था, उसी जीव ने अपने २५वें नन्दन ऋषि के जन्म में ८० हजार से अधिक मासक्षमण के तप किये फिर भी त्रिपृष्ठ के जन्म में किये गये कर्म की सत्ता रह ही गई और महावीर के भव में ग्वाले द्वारा उनके कानों में कीलें ठोकी गईं। इस जन्म में या अन्य किसी भी जन्म में किये गये कर्म फल कब उदय में आयेंगे, यह हम नहीं जान सकते, अनन्तज्ञानी ही इसे जान सकते हैं। पर यह तो निश्चित ही है कि अपना अबाधाकाल पूरा होने पर बँधे हुए कर्म अवश्य ही उदय में आते हैं और जीव को उन्हें भोगना ही पड़ता है। इतना तो प्रायः सभी जानते हैं कि कुछ अति उग्र पुण्य-पाप के फल जीव को वर्तमान जन्म में भी भोगने पड़ते हैं। हमारे पूर्व महापुरुषों ने अशुभ के उदयकाल में जिस धैर्य और समभाव को कायम रखा, वह वास्तव में विचारणीय है। हम तो सामान्य उदयकाल में भी हिम्मत हार जाते हैं । यदि हमें यह बात समझ में आ जाय कि हमारे स्वयं के द्वारा बांधे गये कर्म जब उदय में आते हैं तब उन्हें स्वयं हमें ही भोगना पड़ता है, तो कैसे भी शुभ या अशुभ कर्म के उदयकाल में समभाव बना रह सकता है। समभाव पूर्वक भोगे गये कर्म विपाक के द्वारा अशुभ कर्म के उदयकाल में भी जीव महान् निर्जरा को सिद्ध कर सकता है। अशुभ के उदय काल में यदि समभाव बना रह सके तो शुभ के उदय से भी अधिक निर्जरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9