Book Title: Karm Vipak Author(s): Lalchand Jain Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 2
________________ कर्म-विपाक ] [ ११९ पाप कर्म कितना भी मामूली क्यों न हो पर उसमें रस की तीव्रता से उसका विपाक कितना दारुण होता है, यह खंधक मुनि के उदाहरण से ज्ञात होता है। पाप कर्म तो करना ही नहीं चाहिये पर यदि प्रमादवश वैसा आचरण हो भी जाय तो उसमें रसासक्ति कतई नहीं होनी चाहिये । गूगापन, मुखरोग, समझ में न आने वाली भाषा बोलना प्रादि असत्य भाषण के विपाक हैं। वसुराजा असत्य भाषण के पाप से नरक में गये । बातबात में झूठ बोलने वाले, झूठी गवाही देने वाले, झूठे दस्तावेज बनाने वाले, झूठी बहियें लिखने वाले नरक निगोद के दुःख को प्राप्त करते हैं। असत्य भाषण महान् पाप का कारण है, इससे जीव सुकृत के फल को भी हार जाता है। ___ दुर्भाग्य, दरिद्रता, गुलामी आदि चौर्य कर्म के फल हैं । चोरी करने वाले इस जन्म में तो लाठी, घूसे आदि खाते ही हैं, राज्य दंड स्वरूप जेल भी भुगतते ही हैं, किन्तु परभव में नरक आदि की घोर वेदना को प्राप्त करते हैं । व्यापार में अनीति का आचरण, स्मगलिंग द्वारा एक देश से दूसरे देश में माल लाना-ले जाना, ऐसे माल का क्रय-विक्रय, अच्छी वस्तु में बुरो वस्तु की मिलावट करना, अत्यधिक भाव बताना, माप-तौल में कम देना, ज्यादा लेना आदि सभी प्रकार के कार्य चोरी हैं। नीति और न्याय द्वारा किया गया विक्रय ही व्यापार है, अन्य सब तो दिन-दहाड़े लूटना है। बहुत से लोग यह दलील करते हैं कि न्याय-नीति से चलेंगे तो पेट ही नहीं भरेगा, परन्तु उनकी यह दलील थोथी है। नीति से पेट तो अवश्य भर जाता है, हाँ पेटी नहीं भरी जा सकती। पाप का मूल पेट नहीं है, लोभ ही पाप का मूल है। पेट की भूख से धन की भूख बहुत भयंकर है। लाखों, करोड़ों की सम्पत्ति हो जाने पर भी धन की भूख नहीं मिटती। शास्त्रों में इच्छा को आकाश के समान अनन्त कहा है। इच्छाओं का अन्त हो जाय तो दुःख का भी अन्त हो सकता है। सन्तोष से इच्छाओं का निरोध हो सकता है। लोभ पाप का मूल है तो सन्तोष धर्म का फल है। नपुसकता, दुर्भाग्य, तिर्यंच गति (पशु-पक्षी योनि) आदि अब्रह्मचर्य के . फल हैं। असंतोष, अविश्वास, महारंभ आदि मूरूिपी परिग्रह के कटु फल हैं। परिग्रह परिमाण से अनेकों पाप रुक जाते हैं और जीवन में अनुपम शांति का अनुभव होता है। स्व पत्नी संतोष और परिग्रह-परिमाण ये दोनों नीतियुक्त जीवन की आधारशिला हैं। इनके पालन के बिना जब मनुष्य नैतिक जीवन भी नहीं जी सकता तब धर्म सिद्धि की तो बात करना ही व्यर्थ है। जैसे कुपथ्य का सेवन करने वाले पर औषधि का कोई प्रभाव नहीं होता उसी तरह अधिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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