Book Title: Karm Bandhan evam Mukti ki Prakriya
Author(s): Samdarshimuni
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 1
________________ : ५०७ : कर्म : बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रियाएँ न्थ कर्म : बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रियाएँ मुनिश्री समदर्शीजी 'प्रभाकर' जीव और पुद्गल-दो स्वतन्त्र तत्त्व हैं । आत्मा के साथ पुद्गल (कर्म) का संयोग-सम्बन्ध होना बन्ध है, और उसका वियोग हो जाना, कर्मों का पूर्णतः क्षय हो जाना, मोक्ष है। श्रमण भगवान महावीर के समय में यह प्रश्न भी दार्शनिकों, विचारकों और धर्म-संस्थापकों (आचार्यो) के समक्ष चर्चा का महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। कुछ विचारक ऐसा मानते थे कि 'पुरुष (आत्मा) सत्त्व, रजो और तमो-तीनों गुणों से रहित है और विभु (व्यापक) है। इसलिए उसे पुण्य-पाप का बन्ध नहीं होता। वह कर्म का बन्ध ही नहीं करता और उससे न तो स्वयं मुक्त होता है और न कर्म को अपने से मुक्त करता है, वह तो अकर्ता है। वह बाह्य या आभ्यन्तर कुछ नहीं जानता, क्योंकि ज्ञान पुरुष का नहीं, प्रकृति का स्वभाव है।' इस तरह के चिन्तन से तीन प्रश्न उठते थे, कि यदि जीव के साथ कर्म का संयोग होना यही बन्ध माना जाए, तो वह बन्ध सादि है, या अनादि ? यदि बन्ध सादि है, तो पहले जीव और तदनन्तर कर्म उत्पन्न हुआ ? या पहले कर्म उसके बाद जीव का उद्भव हुआ? या दोनों का युगपत जन्म हुआ ? जीव कर्म से पूर्व तो उत्पन्न नहीं हो सकता। बिना कर्म के उसकी उत्पत्ति निर्हेतुक होगी और तद्र प उसका विनाश भी निर्हेतुक हो जाएगा। यदि जीव अनादि से है, तो उसका कर्म के साथ संयोग नहीं हो सकता, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है। यदि बिना कारण ही जीवकर्म का संयोग होता हो, तो मुक्त जीव भी पुनः बद्ध हो जायेंगे। इस प्रकार जब बन्ध ही नहीं होता, तो मुक्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । वह तो सदा मुक्त ही है। दूसरी बात यह है कि जीव से पहले कर्म की उत्पत्ति नहीं मान सकते। क्योंकि जीव कर्म का कर्ता है। बिना कर्ता के उसकी उत्पत्ति निर्हेतुक होगी, तो विनाश भी निर्हेतुक हो जाएगा। यदि दोनों को युगपत मानें तब भी उनमें कर्तापन और कार्यरूपता घट नहीं सकती। युगपत उत्पन्न होने वाले पदार्थों में जैसे गाय और गाय के सींग-दोनों में गाय सींग की कर्ता नहीं है और सींग गाय के कार्य नहीं हैं, उसी प्रकार जीव-कर्म भी परस्पर कर्ता और कार्य नहीं हो सकते । जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध मानना भी उपयुक्त नहीं है। जो अनादि सम्बन्ध है, वह अनन्त भी होगा और जो अनन्त है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता। फिर जीव कभी भी कर्म-बन्ध से मुक्त ही नहीं होगा। इसलिए इस संसार में जीव को न तो कर्म का बन्ध होता है और न वह उस बन्धन से मुक्त होता है । बन्धन ही नहीं है, तब मुक्ति कैसी ? बन्ध-मोक्ष का स्वरूप कर्म से आत्मा का आबद्ध होना और आबद्ध कर्मों से मुक्त होना-बन्ध और मोक्ष तत्त्व हैं। इस सम्बन्ध में आगम-युग एवं दार्शनिक-युग में विचारकों में विचार-भेद रहा है। चार्वाक-दर्शन के अतिरिक्त सभी दार्शनिक बन्ध और मोक्ष के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, परन्तु अन्तर हैबन्ध और मोक्ष किसका होता है, इस मान्यता में। कुछ विचारक ऐसा मानते हैं कि आत्मा त्रि-गुणातीत है, विभु (व्यापक) है, शुद्ध है, अकर्ता है, इसलिए पुरुष (आत्मा) को बन्ध नहीं होता। १ विशेषावश्यकभाष्य,१८०५-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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