Book Title: Karm Bandhan evam Mukti ki Prakriya
Author(s): Samdarshimuni
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 10
________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : ५१६ : स्थान (दसवें गुणस्थान) तक रहता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में राग (माया-लोभ) और द्वेष (क्रोध-मान) तीव्रतम रहता है। अव्रत एवं देश-व्रत सम्य दृष्टि में तीव्र कषाय रहता है। प्रमत्तसंयत में मन्द कषाय रहता है, अप्रमत्त में मन्दतर और आठवें से दसवें तक मन्दतम कषाय रहता है। एकादश गुणस्थान में कषाय पूर्णतः उपशान्त रहता है, उसका नाश नहीं होता, इसी कारण इस गुणस्थान को स्पर्श करने वाला साधक अवश्य ही नीचे गिरता है। परन्तु अष्टम गुणस्थान से कषायों का क्षय करते हुए क्षपक श्रेणी से गुणस्थानों का आरोहण करने वाला साधक दसवें से सीधा बारहवें गुणस्थान को स्पर्श करके त्रयोदश गुणस्यान में पूर्णतः वीतराग-भाव में स्थित हो जाता है। अतः द्वादश एवं त्रयोदश दोनों गुणस्थानों में केवल योग रहता है, इसलिए योगों की प्रवृत्ति से केवल कर्म आते हैं और तत्क्षण झड़ जाते हैं, कषाय अथवा राग-द्वेष का अभाव होने से उनका बन्ध नहीं होता, प्रत्युत पूर्व आबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। और चर्तुदश गुणस्थान में योग का भी निरोध करके साधक अयोग अवस्था को प्राप्त होकर सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो जाता है, इसलिए इस गुणस्थान में कर्म का आगमन भी नहीं होता। निष्कर्ष यह रहा कि बन्ध का कारण राग-द्वेष एवं कषाय युक्त परिणाम है। जब तक योगों का अस्तित्व है, तब तक प्रवृत्ति तो होगी ही। प्रवत्ति योगों का स्वभाव है। वह कर्म-पुद्गलों को अपनी ओर आकर्षित करती है, परन्तु उनका आत्म-प्रदेशों के साथ बन्ध होता है कषाय-भाव से ही । अतः राग-भाव, कषाय-भाव बन्ध का कारण है, और वीतराग-भाव संसार-चक्र से, कर्मबन्ध से मुक्त होने के कारण है। इसलिए संसार एवं बन्ध का अर्थ है-कषाय-भाव या राग-भाव में परिणत होना और मोक्ष या मुक्ति का अर्थ है-वीतराग-भाव में स्थित रहना, उसी में परिणत होना। बन्ध एवं अबन्ध की इस प्रक्रिया को आगम एवं विशेषावश्यकभाष्य में एक रूपक के द्वारा समझाया गया है-एक व्यक्ति शरीर पर तेल लगाकर खड़ा होता या लेट जाता है, तो हवा के झोंके के साथ आने वाली मिट्टी उसके शरीर पर चिपक जाती है और दूसरा व्यक्ति बिना तेल लगाये खुले आकाश में खड़ा होता है, उसके शरीर पर हवा के झोंके से मिट्टी लगती तो है, परन्तु चिपकती नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में एक रूपक और दिया गया है-एक व्यक्ति मिट्टी के दो गोले-एक गीला और एक सुखा, दीवार पर फेंकता है, तो गीला गोला दीवार पर चिपक जाता है और सूखा गोला दीवार को स्पर्श तो करता है, परन्तु उस पर चिपकता नहीं है । एक उदाहरण और दिया जा सकता है-एक ईंट रखने के बाद उस पर दूसरी ईंट रखने के पूर्व प्रथम ईट पर सीमेन्ट, चूना या गारा लगा दिया जाता है, तो वे ईंटें एक-दूसरी से भली-भाँति आबद्ध होकर दीवार का आकार ले लेती हैं, भव्य-भवन के रूप में साकार रूप ले लेती है। परन्तु यदि उनके मध्य में सीमेन्ट, चूना या गारा न लगाया जाए, तो वे ईंटें परस्पर आबद्ध होकर दीवार या भवन का रूप नहीं ले सकतीं । एक ही झटके में गिर सकती हैं या गिरायी जा सकती हैं। यही स्थिति कर्म-बन्ध की है। जिस व्यक्ति के परिणामों में राग-द्वेष एवं कषाय-भाव की स्निग्धता (चिकनाहट) है, वही कर्म-रज से आबद्ध होता है। अलग-थलग रही हुई दो ईटों को परस्पर आबद्ध करने की क्षमता सीमेण्ट की चिकनाहट में ही है। यदि साधक के परिणामों में कषायों का चिकनापन न हो तो कोई कारण नहीं कि कर्म उसे बाँध ले। मिट्टी का गीला मोला ही दीवार पर चिपकता है। कषाय-भाव एवं राग-भाव के गीलेपन से रहित वीतराग-भाव में स्थित साधक कदापि कर्म से आबद्ध नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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