Book Title: Karm Bandhan evam Mukti ki Prakriya
Author(s): Samdarshimuni
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 12
________________ | श्री जैन दिवाकर म्मृति-ग्रन्थ : चिन्तन के विविध बिन्दु : 518 : त्यागमय भावना की / इसलिए श्रमण भगवान महावीर ने तप की परिभाषा करते हुए कहा हैइच्छा (आकांक्षा एवं तृष्णा) का निरोध करना, उनका क्षय करना ही तप है 'इच्छा निरोधो तपः।' पदार्थों के प्रति मन में जो राग-भाव है, उसी से इच्छा एवं तृष्णा का भाव जागृत होता है, अनुकूल प्रतीत होने वाले पदार्थों को प्राप्त करने की एवं अप्राप्त भोगों को तथा भोग्य पदार्थों को भोगने की कामना उबुद्ध होती है। यह रागमय मनोवृत्ति ही बन्ध का कारण है। इसलिए इस इच्छा एवं आकांक्षा की मनोवृत्ति को रोकना, उसका निरोध करना तप है / तप का अर्थ हैतपाना, परन्तु मात्र शरीर एवं इन्द्रियों को नहीं, मनोविकारों को, भोगेच्छा को, वासना को तपाना है। जिस साधना के द्वारा इच्छा, तृष्णा, वासना एवं कामना नष्ट होती है और साधक निष्कामभाव से साधना में संलग्न होता है, स्व-स्वरूप में परिणमन करता है, वह तप है, और वह निर्जरा का कारण है। इस साधना से एक भव के एवं वर्तमान भव के ही नहीं, पूर्व के अनेक भवों में आबद्ध कर्मों का भी एक क्षण में नाश हो जाता है। इसके लिए यह रूपक दिया गया है कि हजारों मन घास का ढेर एक प्रज्वलित चिनगारी के डालते ही जिस प्रकार कुछ ही क्षणों में जलकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार सम्यकज्ञानपूर्वक की गई तप-साधना से करोड़ों भवों के आबद्ध कर्मों को क्षय होते देर नहीं लगती। बन्ध और मोक्ष के स्वरूप को आगम-साहित्य में सरोवर के रूपक द्वारा समझाया हैतालाब में नालों के द्वारा वर्षा का पानी आता है, और वह उसमें संग्रहीत हो जाता है। पहले आया हुआ पानी काम में आता रहता है, और नया पानी पुन: आकर उस सरोवर को भरा हुआ रखता है। यदि उसके नालों को बन्द कर दिया जाए, तो नया पानी उसमें आएगा नहीं, और पहले का आया हुआ पानी काम में लेने से खाली हो जाएगा या खाली कर दिया जाए तो सरोवर सूख. जाएगा / इस प्रकार आस्रव कर्म रूप पानी के आने का नाला है और उससे आगत कर्मों का बन्ध के द्वारा आत्म-प्रदेशों के साथ बन्ध होता है / संवर कर्म आने के स्रोत को रोकने की साधना है, जिससे नये कर्मों का बन्ध रुक जाएगा और पूर्व के आबद्ध कमों की तप-साधना से निर्जरा करके साधक कर्म-बन्धन से पूर्ण मुक्त हो जाएगा। इस प्रकार आस्रव और बन्ध ये दो तत्त्व संसार परिभ्रमण के कारण हैं, और संवर एवं निर्जरा ये दो तत्त्व मुक्ति के कारण हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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