Book Title: Kandmul Bhakshya Bhakshya Mimansa
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 8
________________ भक्ष्याभक्ष्य से सम्बन्धित विचार धारा का मर्म समझ जाएंगे और व्यर्थ के कदाग्रहों से अपने को अलग रखेंगे। प्रत्येक साधक को मान्यता और सिद्धान्त के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। अनेक प्रचलित मान्यताओं से सत्य कहीं परे होता है। उसे अनाग्रही साधक ही देख सकते हैं आग्रही नहीं-'सत्यमेव जयते।' आलू के सम्बन्ध में अलग से चर्चा कर रहा हूँ। बात यह है कि प्रान्तभेद से जैन समाज में आलू खाया जाता है, कहीं नहीं भी खाया जाता है। खास कर गुजराथ में नहीं खाया जाता। खाना और न खाना एक अलग बात है। परन्तु आलू को अनन्त काय कन्द मान कर उसे अभक्ष्य कहना और खाने वालों को घृणा की दृष्टि से देखना, यह युक्त नहीं है। आलू विदेशों से आया है। वह कन्द की श्रेणी में नही आता। वह जड़ नहीं है अपितु तने में लगने वाला फल विशेष है। आलू भूमि से ऊपर भी तने में लग सकता है। वह भूमि में नहीं पैदा होता। उसकी सुरक्षा एवं विकास के लिए मिट्टी अलग से ऊपर में दी जाती है। और उस मिट्टी की तह के नीचे वह विकास पाता है। यह बात साधारण वनस्पति-परिचय की पुस्तकों में भी देखी जा सकती है। स्थूल दृष्टि से ही भूमिगत होने की बात कही जाती है, जैसे कि काफी समय तक मूंगफली (सींगदाना) को भी भूमिगत होने के कारण व्यर्थ ही कन्द के रूप में वर्जित करते रहे हैं। वस्तुस्थिति को सांगोपांग रूप से स्पष्टतया समझना आवश्यक है। व्यर्थ के पूर्वाग्रहों के आधार पर कुछ-की-कुछ कल्पना कर लेना और उस पर धार्मिक विग्रह एवं कलह खड़े कर देना, कथमपि उचित नहीं है। आलू को कन्द समझ लेने और मान लेने के सम्बन्ध में इसी प्रकार व्यर्थ विग्रह चल रहा है। नई दुनिया, इन्दौर का दिनांक 9-12-1983 का अंक अभी-अभी एक धर्म बन्धु ने मुझे दिखाया है। उसके एक समाचार पर से आलू की स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती है। लिखा है ___"मनीला के वैज्ञानिकों ने टमाटर और आलू के पौधे को मिलाकर 'पोमाटो' नामक एक नया पौधा तैयार किया है, जिस पर आधे टमाटर और आधे आलू की शक्ल के फल लगते हैं।" वैज्ञानिकों की यह शोध, स्पष्ट रूप से टमाटर के समान ही आलू को ___168- प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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