Book Title: Kandmul Bhakshya Bhakshya Mimansa Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf View full book textPage 6
________________ .. कन्दं सूरणादि लक्षणम् । मूलं विदारिकादि रूपम् । प्रलंबं वा तालफलादि । आमं छिन्नं वा सन्निरम् । सन्निरमिति पत्रशाकं तुम्बाकं त्वग्मज्जान्तर्वर्ति । आर्द्रा वा तुलसीमित्यन्ये । श्रृंगबेरं चार्द्रकम् । आमं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः । - आचार्य हरिभद्रजी की टीका ****** . सूरण बिगेरे कन्द, विदारिकादि मूल, अथवा प्रलंबं एटले तालादिकना फल | अने आमं कांचं अथवा छिन्नं छेद्यं एवं सन्निरं पत्रशाक तथा तुंबागं दूधियुं, ते ने तथा शृंगबेरं एटले आदूं एटला वानां आमकं एटले काचां सचित्त होय तो तेने परिवर्जयेत् त्याग करे | - गुजराथी बालावबोध उपर्युक्त उल्लेखों के सिवा दशवैकालिक के पंचम अध्ययन (द्वितीय उद्देशक, गा० 27-28) में शालूक आदि कन्दों के नामोल्लेख पूर्वक पुनः कन्द मूल की चर्चा है, और अन्त में 'आमगं परिवज्जए' उन्हीं पूर्वोक्त शब्दों में कच्चे, सचित्त कन्द-मूल खाने का निषेध किया है । पक्व एवं अचित्त के खाने का आगम में कहीं पर भी निषेध नहीं है। ऊपर में दशवैकालिक सूत्र के आधार पर जो कन्द - मल आदि का वर्णन किया गया है, उस पर से एक और बात पर भी ध्यान देने जैसा है। कन्द के साथ अन्य फल, शाक, बीज तथा इक्षुखण्ड आदि का भी उल्लेख है । सूत्रकार तथा टीकाकार आदि ने कन्द-मूल तथा फल आदि का भक्ष्य तथा अभक्ष्य के रूप में वर्गीकरण नहीं किया है। सामान्य रूप से मात्र सचित्त वनस्पति का निषेध ही अभीष्ट है, कन्दमूल को अभक्ष्य कहना और उन्हें सचित्त तथा अचित्त दोनों ही रूपों में निषिद्ध करना, अभीष्ट नहीं है। जैन संघ में श्वेताम्बर परंपरा के समान ही एक महत्त्वपूर्ण दिगम्बर परंपरा भी है। दिगम्बर मुनि उग्र आचार एवं कठोर क्रियाकाण्ड का विशेष पक्षध र है। अतः प्रस्तुत में हम कन्द-मूल के भक्ष्याभक्ष्य के सम्बन्ध में उक्त परम्परा के विचार भी जिज्ञासुओं के लिए अपस्थित कर रहे हैं। आचार्य वट्टकेर स्वामी दिगम्बर - परम्परा के प्राचीन महान् श्रुतधर आचार्य हैं । मुनिधर्म के वर्णन में उनका प्राकृत भाषानिबद्धं 'मूलाचार' ग्रन्थ आचारशास्त्र 166 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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