Book Title: Kandmul Bhakshya Bhakshya Mimansa Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf View full book textPage 1
________________ कन्द-मूल : भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा संसार के प्रत्येक प्राणी के प्राणों का, जीवन का आधार आहार है। आहार है तो जीवन है, नहीं है तो नहीं है। अतः श्रमण भगवान् महावीर ने इसी सन्दर्भ में कहा था-'आहारट्रिया प्राणा।' वैदिक-परमपरा का भी यही उद्घोष है-'अन्नं वै प्राणाः।' अन्य प्राणियों की बात अलग से छोड़ देते हैं। यहाँ हम मानव के आहार के सम्बन्ध में ही चर्चा करेंगे। क्योंकि मानव के आहार के सम्बन्ध में विधि -निषेधों की जितनी चर्चा अतीत में हुई है और वर्तमान में हो रही है, उतनी अन्य प्राणियों के लिए कहाँ हुई है? मानव, केन्द्र है प्राणि जगत् का, उसी के लिए शास्त्र निर्मित हुए हैं, उसी के सुधार के लिए-मंगल-कल्याण के लिए अधिकांश में भगवदात्मा महान् दिव्य पुरुषों की वाणी मुखरित हुई है। उसी के लिए विधि-निषेधों के अनेकानेक व्रत, नियम आदि विहित हुए हैं। मानव शुभाशुभ के, पुण्य-पाप के मध्य-द्वार पर खड़ा है। उसमें शुभत्व विकसित हो, तो वह सही अर्थ में मानव, मानव मात्र ही नहीं, देव एवं देवातिदेव भी हो सकता है। और, यदि दुर्भाग्य से अशुभ वृद्धि पा जाए, तो वह नरदेह में नर पशु, यहाँ तक कि दैत्य, दानव, पिशाच, राक्षस भी बन सकता है। और आप जानते है प्रस्तुत शुभ एवं अशुभ का अधिकांश में क्षेत्र आहार है। जैसा आहार होता है, वैसा मन होता है। जैसा मन होता है, वैसा ही कर्म होता है। और जैसा कर्म होता है, वैसा ही जीवन होता है। जीवन के शुभाशुभत्व का प्रभाव वैयक्तिक ही नहीं रहता है, वह परिवार एवं समाज तक विस्तार पाता है। इस प्रकार व्यक्ति व्यष्टि नहीं, समष्टि है। अन्य प्राणी जहाँ व्यष्टि की क्षुद्र सीमा तक ही अवरुद्ध रहते हैं, वहाँ मानव व्यापक समष्टि तक पहुँचता है। अतः मानव के आहार के सम्बन्ध में, जो जीवन-निर्माण का प्रमुख हेतु है, आदिकाल से ही शास्त्र पर शास्त्र निर्मित होते आ रहे हैं। आहार को धर्माधर्म तक का विराट रूप मिल गया है। 161 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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