Book Title: Kalpasutra Lekhan Prashasti
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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________________ मार्च २००९ श्रीमुनिसोमगणिरचित कल्पसूत्र लेखन - प्रशस्ति म. विनयसागर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय में कल्पसूत्र का अत्यधिक महत्त्व है । पर्वाधिराज पर्युषणा पर्व में नौ वाचनागर्भित कल्पसूत्र का पारायण किया जाता है और संवत्सरी के दिवस मूल पाठ (बारसा सूत्र) का वाचन किया जाता है । प्रत्येक भण्डारो में इसकी अनेकों प्रतियाँ प्राप्त होती हैं । अनेक ज्ञान भण्डारों में तो सोने की स्याही, चाँदी की स्याही और गंगा-जमुनी स्याही से लिखित सचित्र प्रतियाँ भी शताधिक प्रतियाँ प्राप्त होती हैं । केवल स्याही में लिखित प्रतियाँ तो हजारों की संख्या में प्राप्त हैं । १७ पन्द्रहवी शती के धुरन्धर आचार्य श्री जिनभद्रसूरिने समय की मांग को देखते हुए अनेक जिन मन्दिरों, हजारों जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएं की और साहित्य के संरक्षण की दृष्टि से खम्भात, पाटण, माण्डवगढ, देवगिरि, जैसलमेर आदि भण्डार भी स्थापित किए । लेखन प्रशस्तियों से प्रमाणित है कि आचार्यश्री ने न केवल ताड़पत्र और कागज पर प्रतिलिपियाँ ही करवाई थी अपितु अपने मुनि - मण्डल के साथ बैठकर उनका संशोधन भी करते थे । जैसलमेर का ज्ञान भण्डार उनके कार्य-कलापों और अक्षुण्ण कीर्ति को रखने में सक्षम है। जहाँ अनेकों जैनाचार्य, अनेकों विद्वान् और अनेकों बाहर के विद्वानों ने आकर यहाँ के भण्डार का उपयोग किया है। इन्हीं के सदुपदेश से विक्रम संवत् १५०९ में रांका गोत्रीय श्रेष्ठी नरसिंह के पुत्र हरिराज ने स्वर्ण स्याही में (सचित्र) कल्पसूत्र का लेखन करवाया था । इसकी लेखन प्रशस्ति पण्डित मुनिसोमणि ने लिखी थी । प्रशस्ति ३६ पद्यों में है । इस प्रशस्ति में प्रति लिखाने वाले श्रावक का वंशवृक्ष और उपदेश देने वाले आचार्यों की पट्ट- परम्परा भी दी गई है । Jain Education International श्री जिनदत्तसूरिजी ने उपकेशवंश में रांका गोत्र की स्थापना की थी । इसी कुल के पूर्व पुरुष जोषदेव हुए, जिन्होंने कि मदन के साथ सपादलक्ष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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