Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 18
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 468
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५३ हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१८ ७७३६९. कल्पसूत्र की टीका सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. २-१(१)=१, पू.वि. मात्र बीच का ही एक पत्र है., जैदे., (२६४११.५, ६४३२). कल्पसूत्र-टीका*, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. १० कल्प नाम अपूर्ण से है.) कल्पसूत्र-टीका का टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ७७३७०. (#) औपदेशिक कवित्त संग्रह, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १, पू.वि. मात्र प्रथम पत्र है., प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५४११.५, १२४३०-३५). औपदेशिक कवित्त संग्रह", पुहिं.,मा.गु., पद्य, आदि: (-); अंति: (-), (संपूर्ण, वि. अमरसिंह, तुलसीदास आदि विद्वानों की लघुकविताओं का संग्रह.) ७७३७१. (#) सोलसूपन सज्झाय, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६४११.५, १०x२३). १६ स्वप्न सज्झाय-चंद्रगुप्त राजा, मु. विद्याधर, मा.गु., पद्य, आदि: सरसति सामणि वीनवउं; अंति: (-), (पू.वि. गाथा-१४ अपूर्ण तक है.) ७७३७३. (+) अभिधानचिंतामणि नाममाला, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. २२-२१(१ से २१)=१, पू.वि. मात्र बीच का ही एक पत्र है., प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२५.५४११.५, १३४३४). अभिधानचिंतामणि नाममाला, आ. हेमचंद्रसूरि कलिकालसर्वज्ञ, सं., पद्य, वि. १३वी, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. कांड-३ के श्लोक-८ अपूर्ण से श्लोक-२२ तक है.) । ७७३७६. (#) द्वात्रिशदनंतकायद्वाविंशत्यभक्षपत्रं सह व्याख्या व औषधसंग्रह, अपूर्ण, वि. १७७१, भाद्रपद कृष्ण, १३, शनिवार, मध्यम, पृ. २-१(१)=१, कुल पे. २, प्र.वि. त्रिपाठ. मूल पाठ का अंशखंडित है, जैदे., (२६४११.५, २-१४४४१). १.पे. नाम. द्वात्रिंशदनंतकायद्वाविशत्यभक्षपत्र सह व्याख्या, पृ. २अ, अपूर्ण, पू.वि. मात्र अंतिम पत्र है.. २२ अभक्ष्य ३२ अनंतकाय कुलक, प्रा., पद्य, आदिः (-); अंति: वज्झहवज्झाणिबावीस, गाथा-७, (पू.वि. गाथा-७ अपूर्ण मात्र है.) २२ अभक्ष्य ३२ अनंतकाय कुलक-व्याख्या, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: वर्जनीयानि वस्तूनि. २. पे. नाम. औषध संग्रह, पृ. २आ, संपूर्ण... औषध संग्रह*, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ७७३७९. (#) युगबाहु स्तुति व साधारणजिन स्तवन, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १, कुल पे. २, प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२४.५४११, १४४४८). १.पे. नाम. श्लोकसंग्रह, पृ. १अ, संपूर्ण. युगबाहजिन स्तुति, सं., पद्य, आदि: तीर्थकर करणेभद; अंति: (-), (अपूर्ण, पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., प्रथम श्लोक अपूर्ण मात्र लिखा है.) २. पे. नाम. सामान्यजिन स्तोत्र, पृ. १अ-१आ, अपूर्ण, पृ.वि. अंत के पत्र नहीं हैं. साधारणजिन स्तोत्र, सं., पद्य, आदि: जयति दलितपापः; अंति: (-), (पू.वि. श्लोक-२२ अपूर्ण तक है.) ७७३८२. (+#) आगमिकपाठ संग्रह, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १७-१५(१ से १५)=२, पू.वि. बीच के पत्र हैं., प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४११.५, १६४५१). आगमिकपाठ संग्रह, प्रा.,सं., प+ग., आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. आचारांगसूत्र श्रुत०२, अध्ययन-१ उद्देश-१ साक्षिपाठ अपूर्ण से लुंकामतखंडन पाठांश अपूर्ण तक है.) ७७३८३. (+) प्रज्ञापनासूत्र-पद-२१ सूत्र-५२३ से ५२४ पंचविध शरीरवर्णन, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १, पू.वि. मात्र प्रथम पत्र है., प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित., जैदे., (२४.५४११, १२४३५). प्रज्ञापनासूत्र, वा. श्यामाचार्य, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (प्रतिअपूर्ण, पू.वि. सूत्र-५२४ अपूर्ण तक है.) ७७३९१. सामान्यजिन स्तुति व मेघमाला विचार, अपूर्ण, वि. १९वी, जीर्ण, पृ. १, कुल पे. २, जैदे., (२६४१२, १७४४०-४५). १. पे. नाम. साधारणजिन स्तुति, पृ. १अ, संपूर्ण. आ. लक्ष्मीसूरि, मा.गु., पद्य, आदि: छत्र त्रय चामर तरु; अंति: लक्ष्मी० ज्ञान उदार, गाथा-१. २५). For Private and Personal Use Only

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