Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 14
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥श्री महावीराय नमः॥ ॥ श्री बुद्धि-कीर्ति-कैलास-सुबोध-मनोहर-कल्याण-पद्मसागरसूरि सद्गुरुभ्यो नमः॥ कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१४ ५५६०१. (#) भक्तामर स्तोत्र सह बालावबोध व कथा, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. २५-१०(१ से ८,११ से १२)=१५, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४१०.५, १५४३५). भक्तामर स्तोत्र, आ. मानतुंगसूरि, सं., पद्य, आदिः (-); अंति: (-), (पू.वि. गाथा १२ की कथा अपूर्ण से गाथा १७ अपूर्ण तक व गाथा १९ की कथा से गाथा ४० की कथा अपूर्ण तक है.) भक्तामर स्तोत्र-बालावबोध+ कथा, मा.गु., गद्य, आदिः (-); अति: (-). ५५६०३. (+#) माधवानलद्धकगाहावत्स चौपाई, संपूर्ण, वि. १६४२, पौष कृष्ण, १०, रविवार, मध्यम, पृ. १६, ले.स्थल. मातरग्राम, पठ. पं. पद्मराज गणि; राज्यकालरा. अकबर, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. श्रीशांतिजिन प्रसादात्., संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४१२,१५४४६). माधवानल चौपाई, उपा. कुशललाभ, मा.गु., पद्य, वि. १६१६, आदि: देवि सरसति देवि; अंति: नर सुख पामइ संसारि, गाथा-५५२. ५५६०४. (+#) अंजनासुंदरीनो रास व सम्यक्त्व चौढालियो, अपूर्ण, वि. १८५५, आश्विन कृष्ण, ४, शनिवार, मध्यम, पृ. १५, कुल पे. २, ले.स्थल. जोधपुर, प्रले. ताराचंद, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. संशोधित. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५४११, १४४३७). १. पे. नाम. अंजनासुंदरी रास, पृ. १अ-१५आ, संपूर्ण. मा.गु., पद्य, आदि: सील समोवर को नही; अंति: भार्या जगतनी माय तो, गाथा-२२६. २. पे. नाम. सम्यक्त्व चौढालियो, पृ. १५आ, अपूर्ण, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं. मु. रायचंद ऋषि, रा., पद्य, वि. १८३३, आदि: समकितमाहे दिढ रह्या; अंति: (-), (पू.वि. ढाल १ गाथा ३ अपूर्ण तक ५५६०५. (+#) वाग्भट्टालंकार सह वृत्ति, अपूर्ण, वि. १६वी, मध्यम, पृ. १५-१(१)=१४, प्र.वि. संशोधित-पदच्छेद सूचक लकीरें-संधि सूचक चिह्न-अन्वय दर्शक अंक युक्त पाठ-पंचपाठ. टीकादि का अंश नष्ट है, जैदे., (२६४११, ११४३३). वाग्भटालंकार, जै.क. वाग्भट्ट, सं., पद्य, वि. १२वी, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. बीच के पत्र हैं., परिच्छेद १ श्लोक १० से परिच्छेद ५ श्लोक ३२ अपूर्ण तक है.)। वाग्भटालंकार-टीका, आ. जिनवर्धनसूरि, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), पू.वि. बीच के पत्र हैं. ५५६०७. (+#) कथा संग्रह, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. १६-२(१ से २)=१४, पू.वि. बीच के पत्र हैं., प्र.वि. संशोधित. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४११.५, १७४४५). कथा संग्रह, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. अर्हद्दासश्रेष्ठि जिनपूजा प्रसंग से गुणसुंदरी कन्या प्रसंग व दृष्टांत श्लोक-२० से १३६ तक है., वि. संग्रामसूर, प्रसेनजित्, वरदत्त ब्राह्मण आदि की कथाएँ हैं.) ५५६०९. (#) देवकी पुत्र चौपाई, संपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १४, प्र.वि. मूल पाठ का अंश खंडित है, जैदे., (२५४१२, १०४३७). देवकीपुत्र चौपाई, मु. लावण्यकीर्ति, रा., पद्य, आदि: अनेकजसा जस आगलो अनंत; अति: जगमे सोभाग हे माय. ५५६१०. अमरसेनवयरसेन चौपाई, संपूर्ण, वि. १८७४, आश्विन कृष्ण, ५, मंगलवार, श्रेष्ठ, पृ. १३, प्रले. पं. ऋद्धिसागर मुनि (गुरु पं. सुगुणकुशल मुनि),प्र.ले.पु. सामान्य, जैदे., (२५.५४११,१५४४२). अमरसेनवयरसेन चौपाई, मु. धर्मवर्धन, मा.गु., पद्य, वि. १७२४, आदि: अक्षर राजा जिम अधिक; अंति: परमाणंद सुख पावेजी, ढाल-१८, गाथा-३५४. For Private and Personal Use Only

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