Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 09
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतोपासक तपस्वी मुनि श्री निर्वाणसागरजी म. सा. का परिचय तारक तीर्थंकर परमात्मा श्रीमहावीरस्वामी की यशस्वी पाटपरंपरा में सुप्रसिद्ध योगनिष्ठ। आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज की शिष्य-परंपरा में श्रुतोद्धारक राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर स्व. उपाध्यायजी श्री धरणेन्द्रसागरजी महाराज के शिष्यरत्न तपस्वी मुनि श्री निर्वाणसागरजी महाराज का चरित्र वर्तमान काल में एक सच्चे निर्विकारी व सन्निष्ठ साधु के रूप में सर्वविदित है. | आपश्री का जन्म दिनांक २२/९/१९५२ के दिन गुडा-बालोतान (राजस्थान) में माता स्व. सोनीबाई की कुक्षि से पिताश्री लालचंदजी हीराचंदजी जैन के परिवार में हुआ था. आपका सांसारिक नाम पारसमलजी था. आप बी. एस-सी. तक की लौकिक शिक्षा प्राप्त कर बेल्लारी। (कर्नाटक) में चल रहे पिताश्री के व्यापार में सहयोगी के रूप में प्रवृत हो गये. श्रीसंघ में गुरुमहाराज श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी की निश्रा में आयोजित उपधान तप की आराधना में शामिल होकर पूज्य आचार्यश्री के परिचय में आए. इसी अवधि में आपश्री धर्माभिमुख हुए और मानवजीवन की सफलता प्रव्रज्याधर्म में ही जानकर विक्रम संवत २०३७ फाल्गुण शुक्ल सप्तमी के दिन बेल्लारी में पूज्य गुरुदेव की निश्रा में दीक्षित होकर पूज्य उपाध्याय श्रीधरणेन्द्रसागरजी के शिष्य के रूप में मुनिश्री। निर्वाणसागरजी जैसे लोकप्रिय नाम से अपना संयम जीवन प्रारम्भ किया। दीक्षा के प्रथम दिन से ही अप्रमत्त भाव से संयमयात्रा शुरु कर अन्तिम दिन तक प्रभु-आज्ञामय संयम जीवन व्यतीत किया. वे नित्य एकासणा अथवा आयंबिल तप किया करते थे. कभी भी खुले मुंह आहार ग्रहण नहीं किया. साथ ही २०-२० घन्टों तक सतत प्रवृत्तिशील रहते थे. बाह्य तप के साथ-साथ स्वाध्याय तथा वैयावच्च उनके जीवन के खास पर्याय बन चुके थे.३० वर्षों के दीक्षापर्याय में उन्होंने जिस प्रकार श्रुतज्ञान की आराधना की है, वह अद्भुत है , जोधपुर निवासी विरल श्रुतसेवक श्री जौहरीमलजी पारेख को आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में। स्थित विशाल हस्तप्रत संग्रह के सूचीकरण के प्रारम्भिक कार्य में उन्होंने हस्तप्रत के पत्र गिनने व आवरण चढ़ाने रूप सहयोग प्रदान किया और आगे जाकर श्रुतभक्ति के आदर्श के रूप में उन्होंने ६०,००० से अधिक हस्तप्रतों की विस्तृत सूचनाएँ १,००,००० फॉर्म में भरकर अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है. अपने आप में विलक्षण ऐसे प्रत-दशा संकेत, विशेषता संकेत व प्रतिलेखन पुष्पिका श्लोकों का संकलन आदि सारगर्भित सूचनाएँ उनकी सूक्ष्मदर्शिता का परिचायक है. इतना ही नहीं, बल्कि आज ज्ञानमंदिर की अधिकांश हस्तप्रतों के आवरण पर लिखी गई प्रत-नामादि संक्षिप्त सूचनाएँ उन्हीं की देन है, छोटी से छोटी सामान्यतः व्यर्थ लगनेवाली अनुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोग में लाना उनकी कार्यकुशलता का विशिष्ट परिचायक था. वीरविजयजी उपाश्रय, अहमदाबाद में स्थित ऐतिहासिक ज्ञानभण्डार में संग्रहीत। हस्तप्रतों की सूची स्वयं अकेले तैयार कर उन्होंने श्रुतज्ञान के प्रति समर्पण भाव का और एक परिचय दिया. पूज्यश्री ने वर्तमान समय की आवश्यकता को ध्यान में रखकर सर्वप्रथम रोमन लिपि में डायाक्रेटिक चिह्नों से युक्त दो प्रतिक्रमणसूत्र व पंचप्रतिक्रमणसूत्र हिन्दी शब्दार्थ, गाथार्थ तथा भावार्थ के साथ प्रकाशित कराके लोकोपयोगी बनाया. जिसे विश्वभर के श्रीसंघों द्वारा खूब आदर प्राप्त हुआ. इन दोनों पुस्तकों की प्रथम आवृत्ति हेतु पूज्यश्री ने महीनों तक दिन-रात मेहनत कर प्रत्येक अक्षर पर डायाक्रेटिक मार्क। स्वयं चिपकाए थे. श्रुतभक्ति के जीवंत चमत्कार भी पूज्यश्री के जीवन में देखने को मिलते हैं. पूज्यश्री की सूत्रों की धारणा शक्ति प्रारंभ में कमजोर थी. खूब मेहनत करने पर भी सूत्रों को पुनः पुनः भूल जाते थे. इसी कारण वे संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का अध्ययन भी नहीं कर पाए थे. श्रुतभक्ति का ही प्रभाव था कि बाद में बड़े-बड़े सूत्र भी उनको सरलता से याद रहने लगे थे. हस्तप्रतों में से ग्रंथों की सूचनाएँ निकालने के लिए जहाँ बड़ेबड़े विद्वानों को भी परिश्रम करना पडता है, वहीं पूज्यश्री का ध्यान सारे पन्नों में से जो उपयोगी पाठ होता था, उसी जगह सबसे पहले सहज ही चला जाता था, भले वह पाठ संस्कृत या प्राकृत में ही क्यों न हो! उनके साधुजीवन में नम्रता, सरलता, समता, सजगता, तीव्र जिज्ञासा, निःस्पृहता, प्रभुभक्ति, ज्ञानभक्ति, अप्रमत्त स्वाध्याय, गच्छ-मत के भेदभाव से रहित बाल-ग्लान की सेवा-सुश्रूषा, वैयावच्च आदि दुर्लभ गुण अपनी सोलह कलाओं के साथ खिले हुए थे. प्रत्येक व्यक्ति के लिए। सहायक सिद्ध होना, 'वेस्ट से बेस्ट' बनाना, आरम्भ किए गए कार्य को जी-जान लगा कर पूर्ण करके ही दम लेना आदि अनेक गुणों से वे जीवन के अन्तिम महीनों में उन्होंने २२-२३ घन्टों तक सतत मौन रहकर आराधनाएँ करते हुए शासनदेवता की सहायता प्राप्त की थी. उसकी फलश्रुति के रूप में उन्होंने अत्यन्त चमत्कारी सर्वतीर्थार्हन सिद्धमहायंत्र का संयोजन किया था. मोक्षमार्ग के विरल यात्री पूज्य मुनि श्रीनिर्वाणसागरजी महाराज ने अपने संयम जीवन को यशस्वी बनाकर दिनांक १७/६/२०११ को समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्त किया. धन्य है, हे मुनिवर आपको! धन्य है, आपके सफल जीवन को! धन्य हैं, आपकी अपूर्व आराधनाएँ, हे मुनिवृषभ! आपके चरणों में हमारी कोटिशः वन्दना ! वन्दना !! वन्दना !!! श्रद्धावनत - समग्र श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र परिवार For Private and Personal Use Only

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