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• प्रसेर्णगाथाएँ]
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सुखी रहे सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे । वैर पाप अभिमान छोड़, जग जित्य नये मंगल गावें॥ घर घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावें । श.नच.रेत उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावें ६ ईति भीति व्पापे नहीं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे । धर्मनिष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे ।। रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिंसा धर्म जगत में, फेल सर्व हित किया करे १०।। फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय, कटुक, कठोर शब्द नहीं, कोई मुख से कहा करे ॥ वनकर सब "युग-वीर" हृदय से, देशोन्नतिरत रहा करें। वस्तु स्वरूप विच र खुशी से, सब दुःख संकट सहा करे ११
प्रकीर्ण गाथाएँ नमिऊणं असुर सुरगरूल-भूयंगपरिवंदिय-गयकिलेसे । अरिहंतसिध्धायरियउवज्झायसव्वसाहणं ॥ सिद्धाशं बुद्धाणं पारगया परंपारगया । लोअग्गमुवगया नामो सया सव्व-सिद्धाणं । १॥ जो देवाणमवि देवो, जं देवा पंजली नमसंति । तं देवं देवमहियं सिरसा वन्दे महावीरं ॥२॥ इको वि नमुक्कारो, जिणवर वसहस्स वद्धमाणस्स। संसार-सागराओ तारेड नरं व नारिं वा ॥३।। उजिंतसेल-सिहरे दिक्खा ना निसिहीया जस्स । त धम्मचकवाष्ट्टि अरिटुनेमि नमस्साभि ।।४।