Book Title: Jiravalli Mahatirth ka Aetihasik Vruttant
Author(s): Sohanlal Patni
Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf

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Page 5
________________ AAAAAAAAAAAAAAAIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIManAmAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA[१५] लगभग उदयसिंह चौहान का यहां शासन रहा । भिन्नमाल में वि. सं. १३०५ और १३०६ के शिलालेख प्राप्त हुये है जो उसके शासन के होने के प्रमाण हैं। उस समय उसकी राजधानी जालोर थी । उदयसिंह के पश्चात् उसके पुत्र चाचिगदेव का यहां राज्य रहा । वि. सं. १३१३ का चाचिगदेव का एक शिलालेख सूधा पर्वत पर प्राप्त हुअा है । चाचिगदेव के पश्चात् दशरथ देवड़ा का यहां शासन रहा । वि. सं. १३३७ के देलवाड़ा के अभिलेख में उसे मरुमण्डल का अधीश्वर बताया गया है । वि. सं. १३४० के लगभग यह प्रदेश बीजड़ देवड़ा के अधीन रहा। बीजड़ के बाद लावण्यकर्ण (लूणकर्ण) लुम्भा के अधीन यह प्रदेश था । लुम्भा बहुत ही धर्म सहिष्णु था। परमारों के शासन काल में आबू के जैन मन्दिरों की यात्रा करने वाले यात्रियों को कर देना पड़ता था। लुम्भा ने उसे माफ कर दिया। उसने आसपास के इलाकों में बहुत से जैन मन्दिर बनाने में धन व्यय किया। हो सकता है जीरावल को भी उनका सहयोग मिला हो। अलाउद्दीन की सेनाओं ने जब जालोर आदि स्थानों पर हमला किया तो इस मन्दिर पर भी अाक्रमण किया गया। इस मन्दिर के पास में ही अम्बादेवी का एक वैष्णव मन्दिर था। अत्याचारियों ने पहले उस मन्दिर को धन-सम्पत्ति को लूटा और सारा मन्दिर नष्ट भ्रष्ट कर दिया। उस मन्दिर में बहुत सी गायों का पालन पोषण होता था। हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिये उन अत्याचारियों ने उन गायों को भी मार दिया। वहां से वे जीरावला पार्श्वनाथ के मन्दिर की ओर बढ़े । मन्दिर में जाकर उन्होंने गो-मांस और खन छांटकर मन्दिर को अपवित्र करने की कोशिश की। ऐसा कहते हैं कि मन्दिर में रुधिर छांटने वाला व्यक्ति बाहर आते ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। बाहर ही बहुत बड़े सर्प ने उसे डंक मारा और वह वहीं पर धराशाही हो गया । अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के घावों को भरने में लुम्भा ने बहुत सहायता की और जैन धर्म के गौरव को बढ़ाया। लुम्भाजी का उत्तराधिकारी तेजसिंह था। उसने अपने पिता की नीति का पालन किया और जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया । तेजसिंह के पश्चात् कान्हड़देव और सामंतसिंह के अधीन यह प्रदेश रहा। पंडित श्री सोमधगणी विरचित उपदेशसप्तति के जीरापल्ली सन्दर्भ में जीरावल तीर्थ सम्बन्धी कथा इस प्रकार दी गई है: सं. ११०९ में ब्रह्माण (आधुनिक वरमारण) स्थान में धांधल नाम का एक सेठ रहता था। उसी गांव में एक वृद्ध स्त्री की गाय सदैव सेहिली नदी के पास देवीत्री गुफा में दूध प्रवाहित कर पाती थी। शाम को घर प्राकर यह गाय दूध नहीं देती थी। पता लगाने पर उस वृद्धा को स्थान का पता लगा यह सोचकर कि यह स्थान बहुत चमत्कार वाला है, धांधल को बताया। धांधलजी ने मन में सोचा कि रात को पवित्र होकर उस स्थान पर जायेंगे, वे वहां जाकर के परमेष्ठि भगवान् का स्मरण कर एक पवित्र स्थान पर सोये । उस रात में उन्होंने स्वप्न में एक सुन्दर पुरुष को यह कहते हुए सुना कि जहां गाय दूध का क्षरण करती है वहां पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति है। वह व्यक्ति उनका अधिष्ठायक देव था। प्रात:काल धांधलजी सभी लोगों के साथ उस स्थान पर गये। उसी समय जीरापल्ली नगर के लोग भी वहां पाये और कहने लगे कि अहो ! तुम्हारा इस स्थान पर प्रागमन कैसा ? हमारी सीमा की मूर्ति तुम कैसे लेजा सकते हो? इस तरह के विवाद में वहां खड़े वृद्ध पुरुषों ने कहा कि भाई गाड़ी में एक आपका व एक हमारा बैल जोतो जहां गाड़ी जायगी वहां मूर्ति स्थापित होगी। इस तरह करते यह १ वरमाण व जीरावल के बीच बूडेश्वर महादेव के मन्दिर के पास यह गुफा है। ન થી આર્ય કથાશગૌતમ ઋતિગ્રંથ છે. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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