Book Title: Jiravalli Mahatirth ka Aetihasik Vruttant Author(s): Sohanlal Patni Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf View full book textPage 4
________________ [१४] [१४] IIIIIII I IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIAN हुआ है। ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भ में यह क्षेत्र राजा धुधुक के अधीन रहा । चालुक्य राजा भीमदेव ने जब धुधुक को अपदस्थ किया तो यह प्रदेश उसके अधीन रहा । भीमदेव के सिंहसेनापति विमलशाह के यहां पर शासन करने की बात सिद्ध हुई है । मन्त्रीश्वर विमलशाह ने विमलवसहि के भव्य मन्दिर का निर्माण प्राबू पर्वत पर करवाया। . उन्होंने कई जैन मन्दिरों का जोर्णोद्धार कराया और उन्हें संरक्षण प्रदान किया। बहुत समय तक यह प्रदेश गुजरात के चालुक्यों के आधीन रहा । इस मन्दिर का दूसरी बार जीर्णोद्धार वि. सं० १०३३ में हुआ । तेतली नगर के सेठ हरदास ने जैनाचार्य सहजानन्द जी के उपदेश से इस पुनीत कार्य को करवाया। तेतली नगर निवासी सेठ हरदास का वंश अपनी दानप्रियता के लिए प्रसिद्ध था। उसी वंश परम्परा का इतिहास इस प्रकार मिलता है : श्रेष्ठी वर्ग जांजण धर्मपत्नी स्योरणी श्रेष्ठीवर्ग बाघा धर्मसी मन्नासी धीरासा धीरासा की धर्मपत्नी अजादे से हरदास उत्पन्न हुआ। विक्रम संवत ११५० से यह सिद्धराज के राज्य का अंग था। वि. सं. ११८६ के भीनमाल अभिलेख में चालुक्य सिद्धराज के शासन का उल्लेख मिलता है । वि. संवत् ११६१ के लगभग जैनाचार्य समुद्रघोष और जिनवल्लभसूरि ने यहां की यात्रा की । लगभग इसी काल में जैन धर्म के महान् प्राचार्य हेमचन्द्राचार्य ने यहां की यात्रा की। वे कवि श्रीपाल, जयमंगल, वाग्भद्र, वर्धमान और सागरचन्द्र के समकालीन थे। हर्षपुरीयगच्छ के जयसिंहसूरि के शिष्य अभयदेवसरि ने यहां की यात्रा की । अभयदेवसरि को सिद्धराज ने मल्लधारी की उपाधि दी थी। इन्हीं प्राचार्य ने रणथम्भोर के जैन मन्दिर पर सोने के कुम्भ कलश को स्थापित किया था । खरतरगच्छ के महान जैनाचार्य दादा जिनदत्तसरि ने भी यहां की यात्रा की । उमकी पाट परम्परा में हुए जिनचन्द्रसूरिजी का नाम मन्दिर की एक देहरी पर के लेख में मिलता है। संवत् ११७५ के पश्चात् यहां पर भयंकर दुभिक्ष पड़ा । अतः यह नगरी उजड़ गई और बहुत से लोग गुजरात जाकर बस गये। " सिद्धराज के पश्चात् यह प्रदेश कुमारपाल के शासन का अंग था । उसने जैन धर्म को अंगीकार किया और जैनाचार्यों और गुरुओं को संरक्षण प्रदान किया। उसके द्वारा कई जैन मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख मिलता है । किराडू के वि. सं. १२०५ और १२०८ के कुमारपाल के अभिलेख से उसके राज्य का विस्तार यहां तक होना सिद्ध होता है। जालोर से प्राप्त वि. सं. १२२१ के कुमारपाल के शिलालेख से भी इस बात की पुष्टि होती है। कुमारपाल के पश्चात् अजयपाल के राज्य का यह अंग था। गुजरात के शासक अजयपाल और मूलराज के समय में यहां पर परमार वंशीय राजा धारावर्ष का शासन था। मुहम्मदगोरी की सेना के विरुद्ध हुये युद्ध में उसने भाग लिया था। वि. सं. की तेरहवीं शताब्दी तक यहां पर परमारों का शासन रहा। वि. सं. १३०० के રહી છે. આ ગ્રાઆર્ય કયાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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