Book Title: Jiravalli Mahatirth ka Aetihasik Vruttant
Author(s): Sohanlal Patni
Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf
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हुक्म दिया । सबके सब जहाज बिल्कुल सुरक्षित वापस पहुँच गये और सेठ प्रभासा ने भी अपनी प्रतिज्ञानुसार वापस पहुँच कर सर्वप्रथम श्री जीरावला पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा की ।
(३) यह बात मुगल काल से सम्बन्ध रखती है । उनके शासन काल में मुसलमानों और हिन्दुनों दोनों को ही राज्यकार्य में स्थान प्राप्त होता था । पोरवाड जातीय सेठ मेघासा अपने गुणों के कारण मुगल राज्य में एक अच्छे प्रतिष्ठित कार्य पर नियुक्त थे। मुगल बादशाह भी उन पर प्रसन्न थे । इस कारण अन्य मुसलमानों के दिल के अन्दर ईर्ष्या भाव बना रहता था। वे लोग मेघासा को अपना कट्टर शत्रु समझते थे और सम्राट् को मेघासा के विरुद्ध कुछ न कुछ शिकायतें किया करते थे । नित्यप्रति की शिकायतों से सम्राट् के हृदय में एक दिन बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ। कान भरने वालों ने भाग में तेल का काम किया और क्रोध के आवेश में सम्राट् ने हुक्म जारी कर दिया कि सेठ मेघासा की धन-सम्पत्ति को लूट लिया जाये और मेवासा को जान से मार दिया जाये ।
सम्राट् की इस आज्ञा का किसी न किसी प्रकार एक राजपूत मेहरसिंह को पता चल गया और उसने श्राकर मेघासा को खबर दी । मेघासा ने सम्राट् की प्राज्ञा से बचने का कोई और उपाय न पाकर धर्म शरण ली । उस खबर के मिलते ही अपने मकान में तुरन्त श्री जीरावला पार्श्वनाथजी का ध्यान प्रारम्भ कर दिया । उसने प्रतिज्ञा की कि यदि यह महान् संकट टल गया तो वह जीवन पर्यन्त जीरावला पार्श्वनाथ के नाम की माला जपे बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करेगा। उधर कुछ समय पश्चात् सम्राट् का क्रोध शान्त हुआ । उन्हें अपने हुक्म पर पश्चात्ताप हुआ । सम्राट् ने मार डालने का हुक्म वापस ले लिया और उसके विरुद्ध जो बातें सुनी थीं उसकी जांच प्रारम्भ की। जांच के बाद सम्राट् को मालूम हुआ कि सेठ के विरुद्ध कही गई बातें निराधार और बनावटी हैं । ने मेघासा की ईमानदारी, वफादारी और सच्चाई पर प्रसन्न होकर एक गांव भेंट में दिया ।
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(४) एक बार ५० लुटेरे इकट्ठे होकर आधी रात के समय चोरी के इरादे से मन्दिर में घुसे और अन्दर जाकर सब सामान और नकदी संभाल ली। हर एक ने अपने लिये एक-एक पोटली बाँध कर सिर पर रखी और जिस तरफ से अन्दर घुसे थे उसी ओर से बाहर जाने लगे। इतने में सबकी प्रांखों के आगे अंधेरा छा गया और उन्हें कुछ भी दिखाई न देने लगा। वे जिधर जाते उधर ही उनका पत्थरों से सिर टकराता । पत्थरों की चोटें खाकर उनके सिरों से खून बहने लगा । इस प्रकार निकलने का प्रयत्न करते हुए रात गुजर गई। सुबह वे सब पकड़ लिये गये ।
(५) जीरापल्ली स्तोत्र के रचयिता अंचलगच्छाधिपति पू. ग्राचार्य मेरुतुङ्गसूरि जब वृद्धावस्था के कारण क्षीबल हो गये तब उन्होंने जीरावला की ओर जाते हुए एक संघ के साथ ये तीन श्लोक लिखकर भेजे -
१. जीरापल्लीपार्श्वे पार्श्वयक्षेण सेवितम् ।
अचितं धरणेन्द्रन पद्मावत्या प्रपूजितम् ॥१॥ २. सर्वमन्त्रमयं सर्वकार्यसिद्धिकरं परम् ।
ध्यायामि हृदयाम्भोजे भूतप्रतप्रणाशकम् ॥२॥ ३. श्री मेरुतुङ्गसूरीन्द्रः श्रीमत्पार्श्व प्रभोः पुरः । ध्यानस्थितं हृदि ध्यानयन् सर्वसिद्धि लभे ध्रुवम् ॥ ३॥
કોઈની આર્ય કલ્યાણ ગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ
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