Book Title: Jinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan Author(s): Smitpragnashreeji Publisher: Vichakshan Prakashan Trust View full book textPage 6
________________ अवसर अनुमोदना का साध्वी स्मितप्रज्ञाश्रीजी के पीएच. डी. महानिबंध 'युगप्रधान आ. श्री जिनदत्तसूरि का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान' पुस्तक रूप में प्रकाशन मेरे लिए आनन्द और गौरव की बात है । साध्वी स्मितप्रज्ञाश्रीजी श्वे. मूर्तिपूजक खरतरगच्छ की परंपरा में पू. आदरणीय विदुषी साध्वी श्री मनोहर श्री जी म. सा. की शिष्या है। आपश्री की प्रेरणा से साध्वी स्मितप्रज्ञाश्रीजी ने पीएच. डी. करने के लिए खरतरगच्छ के महाप्रभावक युगप्रधान आचार्य दादासाहब जिनदत्तसूरिजी के जीवन और साहित्य का विषय चुना । दादा साहब के प्रति भक्तिभाव और अनवरत स्वाध्याय की साध्वीजी की तैयारी देख कर मैंने मार्गदर्शन के लिए स्वीकृति दी । मुझे संतोष है कि साध्वीजी ने अपना कार्य पूरी निष्ठा से संपन्न किया है । कलिकाल सर्वज्ञ आ. हेमचन्द्रसूरिजी के समकालीन आ. जिनदत्तसूरिजी प्रचण्ड प्रतिभा के धनी आचार्य थे। बारहवीं सदी में समग्र पश्चिम भारत में जैन धर्म में व्याप्त चैत्यवास के दूषण के विरुद्ध आपने प्रचण्ड आन्दोलन सा छेडा था और अपने तपोबल से सुविहित साध्वाचार को पुनः प्रतिष्ठित किया था । आपने हजारों की संख्या में नये श्रावक बनाकर जैन धर्म को नवजीवन बक्षा था । संस्कृत - प्राकृत के महान विद्वान होने पर भी सामान्य जनों के उपदेश के लिए आपने अनेक ग्रंथो की रचना अपभ्रंश में की थी। ऐसे दादासाहब के जीवन और साहित्य के बारे में आज तक कई छोटी मोटी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है किन्तु समकालीन परिस्थितियों के आलोक में उनके समग्र जीवनकार्य का वृत्तांत और समस्त कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन बाकी ही था । साध्वी स्मितप्रज्ञाश्रीजी ने यह कार्य सुचारु ढंग से संपन्न किया है । महानिबंध स्पष्ट रूप से दो भाग में बट जाता है - प्रथम तीन प्रकरणों में समकालीन देशस्थिति, चैत्यवासरूप शिथिलाचार का संक्षिप्त इतिहास, चैत्यवास के विरुद्ध खरतरगच्छ का उद्भव और दादासाहब की गुरुपरंपरा का संक्षिप्त इतिहास तथा उनका जीवनचरित्र दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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