Book Title: Jin Pratima ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ ६४ उतरकर केवल यह स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे कि विशेषावश्यकभाष्य मूलतः श्वेताम्बर परम्परा के द्रष्टिकोण का सम्पोषक है, उसके रचनाकाल तक अर्थात् छठी-सातवीं शती तक तीर्थकरों की श्वेताम्बर मान्यता के अनुरूप मूर्तियाँ बनना प्रारम्भ हो गई थीं। अकोटा की ऋषभदेव की प्रतिमा इसका प्रमाण है। अत: उसके कथनों को पूर्वकालीन स्थितियों के संदर्भ में प्रमाण नहीं माना जा सकता। श्वेताम्बर परम्परा का यह कथन कि सभी तीर्थकर एक देवदूष्य वस्त्र लेकर दीक्षित होते हैं और दिगम्बर परम्परा का यह कथन कि सभी तीर्थकर अचेल होकर दीक्षित होते हैं- साम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के बाद के कथन हैं। ये प्राचीन स्थिति के परिचायक नहीं हैं। नि:सन्देह महावीर अचेलता के ही पक्षधर थे, चाहे आचारांग के अनुसार उन्होंने एक वस्त्र लिया भी हो, किन्तु निश्चय तो यही किया था कि मैं इसका उपयोग नहीं करूंगा - जिसे श्वेताम्बर भी स्वीकार करते हैं। मात्र यही नहीं, श्वेताम्बर मान्यता यह भी स्वीकार करती है कि उन्होंने तेरह माह पश्चात् उस वस्त्र का भी त्याग कर दिया और फिर अचेल ही रहे। महावीर की अचेलता के कारण ही प्राचीन तीर्थकर मूर्तियाँ अचेल बनीं । पुनः . चूंकि उस काल में बुद्ध की मूर्ति सचेल ही बनती थी, अत: परम्परा का भेद दिखाने के लिए भी तीर्थकर प्रतिमाएँ अचेल ही बनती थीं। प्रो. रतनचन्द्रजी जैन ने दूसरा प्रमाण श्वेताम्बर मुनि कल्याणविजयजी के “पट्टावलीपराग' से दिया है। वस्तुत: मुनि कल्याणविजयजी का यह उल्लेख भी श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि के सन्दर्भ में ही है। उनका यह कहना कि वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लगता था, यह बात केवल अपने सम्प्रदाय की मान्यता को पुष्ट करने के लिए कही गई है। प्राचीन मूर्तियों में ही नहीं, वर्तमान श्वेताम्बर मूर्तियों में भी सूक्ष्म रेखा द्वारा उत्तरीय को दिखाने की कोई परम्परा नहीं है, मात्र कटिवस्त्र दिखाते हैं। यदि यह परम्परा होती तो वर्तमान में भी श्वेताम्बर मूर्तियों में वामस्कंध से वस्त्र को दिखाने की व्यवस्था प्रचलित रहती। वस्तुतः प्रतिमा पर वामस्कन्ध से वस्त्र दिखाने की परम्परा बौद्धों की रही है और ध्यानस्थ बुद्ध और जिन प्रतिमा में अन्तर इसी आधार पर देखा जाता है। अत: जिन प्रतिमा के स्वरूप के सम्बन्ध में मुनि कल्याणविजयजी का कथन भी प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार प्रो. रतनचन्द्रजी ने “प्रवचनपरीक्षा" का एक उद्धरण भी दिया है। उनका यह कथन कि जिनेन्द्र भगवान का गुह्य प्रदेश शुभ प्रभामण्डल के द्वारा वस्त्र के समान ही आच्छादित रहता है और चर्मचक्षुओं के द्वारा दिखाई नहीं देता। वस्तुत: तीर्थंकरों के सम्बन्ध में यह कल्पना अतिशय के रूप में ही की जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7