Book Title: Jin Pratima ka Prachin Swarup Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf View full book textPage 7
________________ 68 श्वेताम्बर धारा के पूर्व आचार्य एवं उपासक जिन * मूर्तियों के उपासना नहीं करते थे। वस्तुत: वे अचेल मूर्तियों को ही पूजते थे। इन ऐतिहासिक साक्ष्यों से मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूँ कि, ईसा की छठी शताब्दी तक दोनों ही परम्पराओं के मंदिर और मूर्तियाँ एक ही होते थे। जैसे आज श्वेताम्बर परम्परा में गच्छभेद होते हुए भी मन्दिर और प्रतिमाएँ विशेष रूप से तीर्थ स्थानों के मन्दिर और प्रतिमाएँ सभी के द्वारा समान रूप से पूजी जाती है, फिर वे चाहे किसी भी गच्छ के आचार्य द्वारा प्रतिष्ठित हों। उस काल तक दोनों ही अचेल प्रतिमा ही पूजते थे। ____ आज श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तियों को जिस प्रकार सवस्त्र रूप से अंकन करने की परम्परा है, वह एक परवर्ती परम्परा है और लगभग छठी शती से अस्तित्व में आई है। मूर्तियों को लेकर विवाद न हो, इसी कारण से यह अन्तर किया गया है। दूसरे मूर्तियों को आभूषण आदि से सज्जित करने, कॉच अथवा रत्न आदि की आँखें लगाने आदि की जो परम्परा आई है वह मूलत: सहवर्ती हिन्दू धर्म की भक्तिमार्गीय परम्परा का प्रभाव है। आदरणीय श्री नीरजजी जैन, श्री मूलचंदजी लुहाड़िया और प्रो. रतनचद्रजी जैन की चिन्ता के दो कारण हैं। प्रथम तो मूर्ति और मंदिरों को लेकर जो विवाद गहराते जाते हैं, उनसे कैसे बचा जाये और दूसरे प्राचीन मंदिर और मर्तियों को दिगम्बर परम्परा से ही सम्बद्ध कैसे सिद्ध किया जाये। उनकी चिन्ता यथार्थ है, किन्तु इस आधार पर इस ऐतिहासिक सत्य को नकार देना उचित नहीं होगा कि ईसा की पाँचवी-छठी शती के पूर्व श्वेताम्बर परम्परा भी अचेल मूर्तियों की उपासना करती थी, क्योंकि मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अभिलेख और चतुर्विध संघ के अंकन से युक्त अनेक मूर्तियाँ इसके प्रबलतम साक्ष्य उपस्थित करती हैं, उन्हें नकारा नहीं जा सकता। * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7