Book Title: Jin Pratima ka Prachin Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf

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Page 6
________________ जिनप्रतिमा का प्राचीन स्वरूप : एक समीक्षात्मक चिन्तन : ६७ वे किन प्रतिमाओं की पूजा करते थे? या तो हम यह माने कि छठी-सातवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर परम्परा का अस्तित्व ही नहीं था, किन्तु इस मान्यता के विरोध में भी अनेक पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक साक्ष्य जाते हैं। यह तो स्पष्ट है कि जैन संघ में भद्रबाहु और स्थूलिभद्र के काल से मान्यता और आचार भेद प्रारम्भ हो गए थे और महावीर के संघ में क्रमश: वस्त्र-पात्र आदि का प्रचलन भी बढ़ रहा था। इस सम्बन्ध में मथुरा के कंकाली टीले के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध है। कंकाली टीले के ईसवी पूर्व प्रथम सदी से लेकर ईसा की प्रथम द्वितीय सदी तक के जो पुरातात्त्विक साक्ष्य हैं, उनमें तीन बातें बहुत स्पष्ट हैं : १. जहाँ तक जिनमूर्तियों का सम्बन्ध है जो खड्गासन की जिन प्रतिमाएँ हैं उनमें स्पष्ट रूप से लिंग का प्रदर्शन है, पद्मासन की जो प्रतिमाएँ हैं उनमें न तो लिंग का अंकन है न ही वस्त्र अंचल का अंकन। सामान्य द्रष्टि से ये प्रतिमाएँ अचेल हैं। २. किन्तु इन प्रतिमाओं के नीचे जो अभिलेख उपलब्ध हैं और उनमें जिन आचार्यों के नाम, कुल, शाखा एवं गण आदि के उल्लेख हैं वे सभी प्रायः श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुरूप हैं। कल्पसूत्र की स्थविरावली में वर्णित कुल, शाखा एवं गण को एवं उसमें वर्णित आचार को श्वेताम्बर अपनी पूर्व परम्परा ही मानते हैं। यह भी सत्य है कि दिगम्बर परम्परा उन कुल, शाखा, गण और आचार्यों को अपने से सम्बद्ध नहीं मानती। ३. इसके अतिरिक्त जो विशेष महत्त्वपूर्ण तथ्य है वह यह कि अनेक तीर्थकर प्रतिमाओं की पादपीठ पर धर्मचक्र के अंकन के साथ-साथ चतुर्विध संघ का अंकन भी उपलब्ध है, उसमें साध्वी मूर्तियां तो सवस्त्र प्रदर्शित हैं किन्तु जहाँ तक मुनि मूर्तियों का प्रश्न है वे नग्न हैं, किन्तु उनके हाथों में सम्पूर्ण कम्बल तथा मख वस्त्रिका प्रदर्शित है। कुछ मनि मूर्तियाँ ऐसी भी उपलब्ध होती हैं जिनके हाथों में पात्र प्रदर्शित है। एक मुनि मूर्ति इस रूप में भी उपलब्ध है कि वह नग्न है किन्तु उसके एक हाथ में प्रतिलेखन और दूसरे हाथ में श्वेताम्बर समाज में आज भी प्रचलित पात्र युक्त झोली है। इन मुनि मूर्तियों को सर्वथा अचेल परम्परा की भी नहीं माना जा सकता, वस्तुत: ये श्वेताम्बर परम्परा के विकास की पूर्व स्थिति की सूचक हैं तथा उसके द्वारा प्रतिस्थापित, वंदनीय एवं पूज्य रही हैं। ये मूर्तियों निश्चित रूप से अचेल हैं। पुन: यदि श्वेताम्बर उनके प्रतिष्ठाप्रक आचायों को अपना मानते हैं तो उन्हें यह भी मानना होगा कि प्राचीन काल में श्वेताम्बर परम्परा में भी अचेल मूर्तियों की ही उपासना की परम्परा थी। श्वेताम्बर मूर्तियों के निर्माण की परम्परा यद्यपि परवर्ती है, किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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