Book Title: Jaisalmer Puratattvik Tathya Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 1
________________ जैसलमेर : पुरातात्त्विक तथ्य भँवरलाल नाहटा... भारत की पश्चिमी सीमा का प्रहरी जैलसमेर नगर अपने उनके स्वर्गवास को साठ वर्ष बीत जाने पर भी प्रकाशित नहीं हो कलापूर्ण जिनालयों और ताड़पत्रीय ग्रंथों के लिए विश्वविश्रुत है। सका है? गत सौ-सवासों वर्षों में अनेक पुरातत्त्वज्ञ, कला-मर्मज्ञ, पर्यटक जब श्री हरिसागरसरिजी का जैसलमेर जानभाण्टार के निरीक्षण एवं तीर्थ यात्रीगण उस दुर्गम प्रदेश में अपनी प्राचीन ग्रंथादि एवं शोध के लिए विराजना हुआ तब काकाजी अगरचंदजी के साथ इतिहास की शोध-रुचि के कारण भयानक कष्ट उठाकर जाते रहे। वहाँ जाकर २५ दिन हम रहे और नाहरजी के प्रकाशित किए हुए हैं। क्योंकि वहाँ मार्ग में जलाभाव स्वाभाविक है। वहाँ सैकड़ों लेखों को मिलाकर संशोधन किया और छूटे हुए अवशिष्ट २७१ तालाब आदि हैं, किन्तु वर्षा तीसरे वर्ष होती है और दुष्काल का र दुष्काल का लेख संग्रह कर बीकानेर जैनलेखसंग्रह के साथ प्रकाशित किए। ठावा-ठिकाना माना जाता रहा है। कहा भी जाता है कि-- नाहरजी का प्रकाशन आज से ६७ वर्ष पूर्व हुआ था। सन् 'पगपूगल धड़ मेड़तेबाहांबाहड़मेर,भूल्योचूक्योबीकपूरठावोजेसलमेर।' वहाँ के ज्ञानभण्डार देखने विदेशी विद्वान भी गए। जैनावारी १९३६ में तो उनका स्वर्गवास ही हो गया था। श्री जिनकृपाचंद्र सूरिजी, श्री हरिसागरसूरिजी, मुनिश्री पुण्यविजयजी आर्यावर्त में सर्वप्राचीन जैनधर्म है और इसमें अनादिकाल पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी आदि ने सुव्यवस्थित करने का से मूर्तिपूजा का प्रचलन रहा है। अन्यधर्मों में मर्तिपूजा जैन धर्म प्रशंसनीय कार्य किया तथा गायकवाड़ सरकार ने चिमनलाल के बाद ही चली थी, यों देवलोक, नंदीश्वर, द्वीपादि में सर्वत्र डाह्या भाई तथा पं. लालचंद भगवान दास गांधी ने वहाँ के . अनादिकाल से प्रथा चली आना सिद्ध है। मूर्तिपूजा का विरोध मुस्लिम शासनकाल में ही हुआ और उनकी संस्कृति के प्रभाव ग्रंथों की सूची भी प्रकाशित की थी। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने से जैनधर्म में भी यह दुष्प्रभाव फैला। विशेष रूप से कार्य किया, अंत में जोधपुर निवासी स्वर्गीय जौहरीमलजी पारख ने ग्रंथों का फिल्मीकरण भी करवाया। किसी भी नगर गाँव के बसने से पूर्व अपने इष्टदेव का मंदिर निर्माण करना अनिवार्य था। जैसलमेर बसने से पूर्व लौद्रवाजी सन १९२९ में स्वनामधन्य श्री परनचंदजी नाहर ने वहाँ में प्राचीनतम मंदिर था। आज जो चार सौ वर्ष प्राचीन मंदिर है, वह के शिलालेख व प्रतिमा लेखों का संग्रह करके इतिहास के साथ ४७९ अभिलेख. जैनलेखसंग्रह का तृतीय भाग जैसलमेर नाम से है. उसके नीचे वाले भाग के घिसे हए पत्थर स्वयं यह उदघोष कर सचित्र प्रकाशित किया। उन दिनों मैं उनके संपर्क में आने से रोकने सहमालि पल के । म उनक सपक म आन स रहे हैं कि वे सहस्त्राब्दि पूर्व के निश्चित रूप से हैं। लौद्रवपुर तथा प्रायः रविवार को उनके यहाँ जाता और हस्तलिखित ग्रंथों व राजस्थान के विभिन्न स्थानों से आए हुए जैनश्रावकों ने वहाँ अपने अन्य सामग्री का आवश्यकतानुसार निरीक्षण करता। उनका निवासस्थान में अनेकों गृहचैत्यालय तथा किले में जिनालय का संग्रह देखकर हमने भी संग्रह कार्य प्रारंभ किया। फलस्वरूप निर्माण कराया था। लौद्रवपर वीरान हो गया। आज हम सवा-डेढ़ लाख ग्रंथों तथा पुरातत्त्व सामग्री का नाहरजी ने किले के मंदिरों के फुटनोट में लिखा है कि संग्रहालय, कलाभवन, बीकानेर में स्थापित कर सके। नाहरजी वृद्धिरत्न माला में वृद्धिरत्नजी ने श्री पार्श्वनाथजी का मंदिर संवत् ने जैनलेखसंग्रह ३ भाग निकाले। वे बंगाल के जैनों में सर्वप्रथम १२१२ में प्रतिष्ठा का समय लिखा है परंतु यह जैसलमेर नगर ग्रेजुएट और पुरातत्त्ववेत्ता थे। जब जैलसमेर का तृतीय खण्ड की स्थापना का समय है। मंदिर तो २५० वर्ष बाद बने थे। छप रहा था तब मैंने भी अपने संग्रह के ऐतिहासिक स्तवनादि मंदिर-प्रतिष्ठा का वर्णन और संवत् प्रशस्ति में स्पष्ट है। नाहरजी प्रकाशित करवाए थे। नाहरजी ने मथुरा के अभिलेखों का हिन्दी व का यह लेख वर्तमान परिवेश की अपेक्षा ठीक है, किन्त मंदिर अंग्रेजी-अनुवाद सहित ग्रंथ तैयार किया था, पर वह अद्यावधि dodriwaridwdnidmidnidiadridnidnidmiridwid[११३Handiridnindiadridridihiridihirdidaolod G Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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