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जैसलमेर : पुरातात्त्विक तथ्य
भँवरलाल नाहटा...
भारत की पश्चिमी सीमा का प्रहरी जैलसमेर नगर अपने उनके स्वर्गवास को साठ वर्ष बीत जाने पर भी प्रकाशित नहीं हो कलापूर्ण जिनालयों और ताड़पत्रीय ग्रंथों के लिए विश्वविश्रुत है। सका है? गत सौ-सवासों वर्षों में अनेक पुरातत्त्वज्ञ, कला-मर्मज्ञ, पर्यटक जब श्री हरिसागरसरिजी का जैसलमेर जानभाण्टार के निरीक्षण एवं तीर्थ यात्रीगण उस दुर्गम प्रदेश में अपनी प्राचीन ग्रंथादि एवं
शोध के लिए विराजना हुआ तब काकाजी अगरचंदजी के साथ इतिहास की शोध-रुचि के कारण भयानक कष्ट उठाकर जाते रहे।
वहाँ जाकर २५ दिन हम रहे और नाहरजी के प्रकाशित किए हुए हैं। क्योंकि वहाँ मार्ग में जलाभाव स्वाभाविक है। वहाँ सैकड़ों
लेखों को मिलाकर संशोधन किया और छूटे हुए अवशिष्ट २७१ तालाब आदि हैं, किन्तु वर्षा तीसरे वर्ष होती है और दुष्काल का
र दुष्काल का लेख संग्रह कर बीकानेर जैनलेखसंग्रह के साथ प्रकाशित किए। ठावा-ठिकाना माना जाता रहा है। कहा भी जाता है कि--
नाहरजी का प्रकाशन आज से ६७ वर्ष पूर्व हुआ था। सन् 'पगपूगल धड़ मेड़तेबाहांबाहड़मेर,भूल्योचूक्योबीकपूरठावोजेसलमेर।'
वहाँ के ज्ञानभण्डार देखने विदेशी विद्वान भी गए। जैनावारी १९३६ में तो उनका स्वर्गवास ही हो गया था। श्री जिनकृपाचंद्र सूरिजी, श्री हरिसागरसूरिजी, मुनिश्री पुण्यविजयजी
आर्यावर्त में सर्वप्राचीन जैनधर्म है और इसमें अनादिकाल पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी आदि ने सुव्यवस्थित करने का
से मूर्तिपूजा का प्रचलन रहा है। अन्यधर्मों में मर्तिपूजा जैन धर्म प्रशंसनीय कार्य किया तथा गायकवाड़ सरकार ने चिमनलाल
के बाद ही चली थी, यों देवलोक, नंदीश्वर, द्वीपादि में सर्वत्र डाह्या भाई तथा पं. लालचंद भगवान दास गांधी ने वहाँ के
. अनादिकाल से प्रथा चली आना सिद्ध है। मूर्तिपूजा का विरोध
मुस्लिम शासनकाल में ही हुआ और उनकी संस्कृति के प्रभाव ग्रंथों की सूची भी प्रकाशित की थी। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने
से जैनधर्म में भी यह दुष्प्रभाव फैला। विशेष रूप से कार्य किया, अंत में जोधपुर निवासी स्वर्गीय जौहरीमलजी पारख ने ग्रंथों का फिल्मीकरण भी करवाया।
किसी भी नगर गाँव के बसने से पूर्व अपने इष्टदेव का
मंदिर निर्माण करना अनिवार्य था। जैसलमेर बसने से पूर्व लौद्रवाजी सन १९२९ में स्वनामधन्य श्री परनचंदजी नाहर ने वहाँ
में प्राचीनतम मंदिर था। आज जो चार सौ वर्ष प्राचीन मंदिर है, वह के शिलालेख व प्रतिमा लेखों का संग्रह करके इतिहास के साथ ४७९ अभिलेख. जैनलेखसंग्रह का तृतीय भाग जैसलमेर नाम से है. उसके नीचे वाले भाग के घिसे हए पत्थर स्वयं यह उदघोष कर सचित्र प्रकाशित किया। उन दिनों मैं उनके संपर्क में आने से रोकने सहमालि पल के
। म उनक सपक म आन स रहे हैं कि वे सहस्त्राब्दि पूर्व के निश्चित रूप से हैं। लौद्रवपुर तथा प्रायः रविवार को उनके यहाँ जाता और हस्तलिखित ग्रंथों व
राजस्थान के विभिन्न स्थानों से आए हुए जैनश्रावकों ने वहाँ अपने अन्य सामग्री का आवश्यकतानुसार निरीक्षण करता। उनका निवासस्थान में अनेकों गृहचैत्यालय तथा किले में जिनालय का संग्रह देखकर हमने भी संग्रह कार्य प्रारंभ किया। फलस्वरूप निर्माण कराया था। लौद्रवपर वीरान हो गया। आज हम सवा-डेढ़ लाख ग्रंथों तथा पुरातत्त्व सामग्री का
नाहरजी ने किले के मंदिरों के फुटनोट में लिखा है कि संग्रहालय, कलाभवन, बीकानेर में स्थापित कर सके। नाहरजी
वृद्धिरत्न माला में वृद्धिरत्नजी ने श्री पार्श्वनाथजी का मंदिर संवत् ने जैनलेखसंग्रह ३ भाग निकाले। वे बंगाल के जैनों में सर्वप्रथम
१२१२ में प्रतिष्ठा का समय लिखा है परंतु यह जैसलमेर नगर ग्रेजुएट और पुरातत्त्ववेत्ता थे। जब जैलसमेर का तृतीय खण्ड
की स्थापना का समय है। मंदिर तो २५० वर्ष बाद बने थे। छप रहा था तब मैंने भी अपने संग्रह के ऐतिहासिक स्तवनादि
मंदिर-प्रतिष्ठा का वर्णन और संवत् प्रशस्ति में स्पष्ट है। नाहरजी प्रकाशित करवाए थे। नाहरजी ने मथुरा के अभिलेखों का हिन्दी व
का यह लेख वर्तमान परिवेश की अपेक्षा ठीक है, किन्त मंदिर अंग्रेजी-अनुवाद सहित ग्रंथ तैयार किया था, पर वह अद्यावधि dodriwaridwdnidmidnidiadridnidnidmiridwid[११३Handiridnindiadridridihiridihirdidaolod
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासजो नगर बसने के समय बसा था, उसकी अवस्थिति का कोई दो-दो वर्ष के अंतर में तीन बार शायद ही आरोपित हुए हैं। ये अभिलेख आदि प्राप्त नहीं होता। यवन शासक अलाउद्दीन किस स्थान पर थे, यह जानने के लिए हमारे पास कोई साधन खिलजी की ध्वंस लीला के शिकार प्राचीन मंदिर कितने क्या नहीं है, किन्तु प्राचीन क्षतिग्रस्त जिनालय के स्थान पर हुए हों, थे, उनका अवशिष्ट शिल्पगत प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु अनुमान सहज ही किया जा सकता है। युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली आदि एवं ग्रंथों की प्रशस्तियों में प्राचीन
पंद्रहवीं, सोलहवीं शती के जैलसमेर की जाहोजलाली मंदिर की प्रतिष्ठा के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं।
अपने पूर्ण मध्याह्न में थी और उसी समय जैसलमेर दुर्ग पर ताडपत्रीय ग्रंथप्रशस्तियों से सिद्ध होता है कि मणिधारी विश्वविख्यात कलापूर्ण जिन मंदिरों का क्रमशः निर्माण हुआ दादा श्री जिनचंद्र सूरि के पट्टधर आचार्य श्री जिनपतिसूरिजी के था। इन मंदिरों का इतिहास जानने के लिए मंदिरों, शिलालेख परम् भक्त सेठ क्षेमंधर के पुत्र जगद्धर ने यहाँ पार्श्वनाथ जिनालय प्रशस्ति, प्रतिमालेख और चैत्य-परिपाटी स्तवनादि से बड़ी सहायता का निर्माण कराया था। आचार्यश्री जिनपतिसूरिजी महाराज सं. मिलती है। १२६० में जैसलमेर पधारे उस समय यहाँ देवग्रह बना हुआ था, जैसलमेर में सर्वप्रथम पार्श्वनाथ जिनालय निर्माण सेठ जिसमें फाल्गुन सुदि २ के दिन उन्होंने श्री पार्श्वनाथ भगवान की
जगद्धर का गौरवपूर्ण वंश परिचय ताड़पत्रीय ग्रंथ-प्रशस्तियों के प्रतिमा स्थापित की। इस प्रतिष्ठा-स्थापना का महोत्सव सेठ
आधार पर दे रहा है। जगद्धर ने बड़े समारोहपूर्वक किया था। ये बोथरा बच्छावत
ऊकेशवंश में आषाढ़ सेठ महर्द्धिक और धर्मिष्ठ हुए हैं। वे आदि के पूर्वज थे।
पहले महेश्वर धर्म को मानने वाले माहेश्वरी थे, जो प्रतिदिन पाँच सं. १३२१ में जिनेश्वरसूरिजी (द्वितीय) ने जैसलमेर में
सौ याचकों, पथिकों को घृत व अन्नदान करते थे। इन्होंने दम्भी जसोधवलकारित देवगृह के शिखर पर मिती ज्येष्ठ शुक्ल १२ के
व्यास की दुष्टता देखकर माहेश्वरत्व छोड़ दिया, क्योंकि लघुकर्मी दिन भगवान पार्श्वनाथ की स्थापना एवं ध्वजारोपण किया था।
थे। अतः उपकेशपुर में वीतराग मुनिपुङ्गवों से सम्यक्त्वरत्न इसी प्रकार सं. १३२३ मिति ज्येष्ठ सुदि १० के दिन जावालिपुर में
प्राप्त कर आर्हत् धर्म स्वीकार कर सपरिवार श्रावक हो गए। जेसलमेर के विधिचैत्य पर आरोपण करने के लिए सा. नेमिकमार
इनके पुत्र जामुबाग और उनका पुत्र सेठ बोहित्य हुआ इसके सा. गणदेव के बनवाए हुए स्वर्णमय दण्डकलश की प्रतिष्ठा हुई। पद्मदेव और वीह नामक दो पत्र थे। सेठ पद्मदेव भार्या देवश्री ये दोनों भ्राता सेठ यशोधवल के वंशज थे। (आवश्यकलघु
का पुत्र सुप्रसिद्ध सेठ क्षेमंघर हुआ। पद्मदेव ने नागौर के पास वृतिप्रशस्ति पृ. ३८) सं. १३२५ में वैशाख सुदि १४ के दिन
। कुडिलुपुर में जिनालय निर्माण कराया। क्षेमंधर ने मरुकोट दुर्ग स्वर्णमय दण्डकलशादि का आरोपणोत्सव विशेषविस्तारपूर्वक
में मणिधारी दादा श्री जिनचंद्रसूरिजी से प्रतिबोध पाकर विधि सम्पन्न हुआ था। युगप्रधान-आचार्य-गुर्वावली से ज्ञात होता है
मार्ग स्वीकार किया और सं. १२१८ वैशाख सुदि १० को धर्कट कि उस समय जैसलमेर मरुस्थल के जनपदों में मुख्य महादुर्ग वंशीय पार्श्वनाथ के पत्र सेठ गोल्लककारित चंद्रप्रभ जिनालय था। श्री जिनप्रबोध सूरिजी महाराज स. १३४० के फाल्गुन में की 'प्रतिष्ठा दण्ड-कलश ध्वजारोहण के समय ५०० द्रम्म देकर यहाँ पधारे तब महाराज कर्णदेव ने सामने आकर स्वागत किया
माला ग्रहण की। उस समय वहाँ राजासिंहबल का राज्य था। और आग्रहपूर्वक चातुर्मास भी कराया। दादाश्री जिनकुशलसूरिजी
सेठ क्षेमंधर के दो पुत्र महेन्द्र और प्रद्युम्न इतः पूर्व दीक्षित महाराज ने सिंधुदेश-विहार के समय जैसलमेर पधारकर
हो चुके थे, वे चैत्यवासी-परंपरा में थे। अपने पुत्र प्रद्युम्नाचार्य स्वहस्तकमलों से प्रतिष्ठित श्री पार्श्वनाथ भगवान को वंदन किया।
को सुविहित विधिमार्ग में लाने के लिए इन्होंने सं. १२४४ में उपर्यक्त प्रमाणों से जैसलमेर बसने के पश्चात् वर्तमान आशापल्ली में श्री जिनपतिसूरीजी के साथ शास्त्रार्थ कराया और मंदिरों के निर्माण से पूर्व वहाँ श्री पार्श्वनाथ स्वामी का स्वर्ण
विधिचैत्यों की गरिमा मान्य कराई पर वे विधि मार्ग में न आए। दण्डकलशयुक्त सौधशिखरी जिनालय होना सिद्ध होता है। ये
। अजयपुर के विधि चैत्य में मण्डप-निर्माण हेतु सेठ क्षेमंधर ने
भ मंदिर एकाधिक हो सकते हैं, क्योंकि स्वर्ण-दण्ड-कलश आदि सोलह हजार रुपए प्रदान किए और हजारों पारुत्थक (मद्रा) inodrowondooriwaridwohrowdriwaridrodaridrira[११४Hiwariridwaridniramidniduiriramidairaniudnoramonand
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासव्यय कर अपने कुल के श्रेयार्थ तीर्थ यात्राएँ कीं। इनके यशोदेवी वर्तमान में जो सर्वप्राचीन कलापूर्ण और मुख्य जिनालय
और हंसिनी नामक भार्याएँ थी। यशोदेवी के पुत्र जगद्धर ने श्री पार्श्वनाथ स्वामी का है। वह खिलजी काल में मुसलमानों के जैसलमेर में देवविमानतुल्य पार्श्वनाथ जिनालय का निर्माण कराया। अधिकार में जैसलमेर था। वह ध्वस्त किए जिनालय के स्थान इनकी स्त्री का नाम साढलही था। जिसकी कोख से १ यशोधवल, में ही बना या अन्यत्र यह पता नहीं, क्योंकि वर्तमान जिनालय २ भुवनपाल, ३. सहदेव नामक पुत्र और आसुला, हीरला रांका सेठ परिवार द्वारा निर्मित है। जिस की विस्तृत, प्रशस्ति में नामक दो पुत्रियाँ हुईं। सेठ, यशोधवल, मरुस्थल-कल्पद्रुम कहलाते उनकी वंशपरंपरा दी गई है। थे। वे प्रतिदिन देशान्तरों से आए हए श्रावकों की भोजनादि से
यह प्रतिष्ठा सं. १३१७ वैशाख सुदि१० को हुई थी। श्री भक्ति करते थे। दूसरे भ्राता भुवनपाल बड़े पुण्यात्मा थे। छह अभयतिलक गणि ने अपने महावीररास में लिखा है कि भवनपाल मास भूमिशय्या, एकासनत्व, स्नानत्याग, षडावश्यक, नवकार ने यह सौधशिखरी जिनालय राय मंडलिक के आदेश से बनवाया मंत्र स्मरण, ब्रह्मचर्य आदि अनेक नियमों के धारक थे। सं.
और मण्डलिकविहार नामक मंदिर बनवाकर अपने पिता श्री १२८८ आश्विन सुदि १० को पालनपुर में गुरु महाराज श्री
जगद्धर शाह के कुल में कलश चढ़ाया। जिनपतिसूरि के स्तूपरत्न पर ध्वजारोहण कराया। श्री भीमपल्ली
भीमपल्ली पुरिविहिभुयणि अनु संठिउ वीर जिणंदो,. में सौधशिखरी प्रासाद निर्माण कराके श्री जिनेश्वरसूरिजी के
तसुउवरि भुयण उतुंग वर तोरणं, मंडलिराय आएसि अइ सोहणं करकमलों से वीरप्रभु की स्थापना कराई। इनकी पत्नी पुण्यिनी साहुणा भुवणपालेण करावियं, जगधर साहुकुलि कलश चाडावियं। बड़ी पुण्यात्मा थी, जिसके त्रिभुवनपाल और धीदा नामक पुत्र हेम धय दंड कलसो तहि कारिओ, पहु जिणेसर सूरि पासि पइठाविओ हुए। उनके क्षेमसिंह और अभयचंद्र पुत्र हुए।
विक्कमेवरिसि तेरहइसतरोतरे (१३१७) सेय वइसाह दसमीइ सुहवासरे अपने गुरु श्री जिनेश्वरसूरिजी की श्रीसंघ सेना के सेनापति
इसी वंश में सा. वीरदेव बड़े नामांकित व्यक्ति हुए, बने। और तीर्थयात्रा द्वारा अपने कल पर अपने नाम का कलश जिनके द्वारा सं. 1381 में श्री जिनकुशल सरिजी के सान्निध्य चढ़ाया। उदारचेता भुवनपाल ने प्रत्येकबुद्ध-चरित्र लिखवाकर में शंगत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकालने का विशद वर्णन श्री जिनेश्वरसूरि को समर्पित किया। अभयचंद्र की भार्या लक्ष्मिनी मिलता है। उसके भाई सा. मालदेव व हुलमसिंह,धनपाल, थी और धीधा, जगसिंह, तेजा नामक तीन पुत्र और पद्मिनी व सामल के नाम भी पूर्वजों के रूप में आए हैं। सं. 1377 में कुमारिका दो पुत्रियाँ एवं साचा आदि पौत्र-प्रपौत्र हुए। सेठ जगद्धर श्री जिनकुशलसूरिजी के पट्टाभिषेक के समय भी वीरदेव पत्तन द्वारा श्रीमालनगर में समवशरण, प्रतिष्ठा व शांतिनाथ स्थापना के में उपस्थित ह । इन्हें भीमपल्ली के मुकुटमणि साधुराज उल्लेख मिलते हैं।
सामल के पुत्र थे, लिखा है। सेठ क्षेमंधर की द्वितीय पत्नी हंसिनी के १ भीमदेव २ श्री नाहरजी के जैनलेखसंग्रह ततीय भाग में प्रकाशित पदम ३ पुरिसड़ पुत्र थे। पद्म की स्त्री जयदेवी और पुत्र का नाम
जयदवा आर पुत्र का नाम अभिलेखों के अतिरिक्त रांका सेठ परिवार द्वारा निर्मापित वर्तमान
भी साढल महाश्रावक था।
जिनालय गत लेखों के अतिरिक्त निम्नोक्त कल्पसूत्र लेखनप्रशस्ति उपर्युक्त इतिवृत्त जैलसमेर में सर्वप्रथम देवविमान सदृश भी इसी परिवार से संबंधित होने से यहां उद्धृत की जा रही है। पार्श्वनाथ जिनालय निर्माण कराने वालों का है जो जैसलमेर
कल्पसूत्र-लेखन-प्रशस्ति ज्ञानभण्डार की कई ताड़पत्रीय ग्रंथप्रशस्तियों एवं युग-प्रधानाचार्य -गुर्वावली के आधार पर लिखा गया है। इस समय न तो कोई
गृक्षगच्चारुशाखायुगा..नासप्रयोजयत्।
श्रीमानूवेशवंशोऽयं, चिरं नंद्यान् महीतले ।।१।। शिलालेख-प्रशस्ति आदि उपलब्ध है और न उस मंदिर का पता है। जिनालय निर्माता का गोत्र भी नहीं लिखा है। अत: बोहित्थ
ता चा-शेष्ठिरंककशाखायां, यक्षदेवस्य नन्दनः। के वंशज बोथरा गोत्र समझना चाहिए।
अभूत् झांबटकाभिख्य, तत्सूनुर्धांधलोत्तमः।।२।। श्रीगजू भीमसिघाख्यानभूतां धांधलाङ्गजौ।
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• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहास.
गजूकस्य गणदेवो, मोक्षदेवस्तया सुतौ ।।३।। मेघा जेसल मोहण, नामांन इतिच विख्याता । गणदेवस्य रसालाश्च चत्वारो जज्ञिरे पुत्राः । । ४ । । जेसलभार्यापूरी, तत्पुत्रास्त्रय इमे गुणैः ख्याता। लक्ष्मीवन्तो यशसा, भुवनत्रयमण्डनप्रवराः । । ५ । । आम्बाकः प्रथमस्तत्रापरो जीन्दाभिधस्तथा । तृतीयो मूलराजाख्यो जातो पुण्य जनाग्रणी । । ६ । । आंबराजस्य भार्येयं, बहुरी तत्सुताविमौ । शिवराज महाराजो, राणी श्याणी च पुत्रिके ।।७।। वल्लभा मूलराजस्य माल्हणदेऽभिधा बुधा । सहस्रराज तत्सूनुः श्रीदेवगुरुभक्ति भाक् ॥ ८ ॥ ॥ मोहनभार्या पुंजी च तु तत्सूनवः चत्वारः । कीहट पासा देल्हा, धन्ना संघाधिप... मीः । । ९ ।। की हट भार्या जाता, कर्पूरीतत्सुता चत्वारः । प्रथम श्चोसभदत्ता धामाकान्हाख्यजगमालाः ।। १० ।। सरस्वतिकौतिगदेव्या भार्ये साधु पासदत्तस्य । वील्हाविमलाबंधु, सरस्वतीनन्दनौ जातौ ।। ११ । कौतिगदेवीपुत्राः कर्मणहेमाख्यठवन्कुराः प्रवरा । देल्हाकस्योत्पन्नौ पुत्रौ जीवन्द कुम्पाख्यौ । । १२ ।। आल्ही सुवल्लभाजज्ञे, धन्ना संघपतेस्तयोः । जगपालस्तथानाथू अमराख्यौ सुता इमे ।। १३ ।। धन्यस्य जगपालस्य, सतीनायकदे प्रिया । सुते चंद्रावली हस्तू, इत्याख्ये च मनोहरे । । १ । । नायकदे श्राविकया गुरुवरजिन भद्रसूरिवचनेन । पुण्यार्थमलेखि तथा सन्देहविषौषधिग्रन्थः । । २ ।। इतश्च - आम्ब्रको मुनि चतुर्दशे४ शते बाणे बाहु' मिते वत्सरे करोत् । देवराजपुरि यात्रयोत्सवं श्री जिना दागुरूपदेशनात् ।। १४ ।। उच्चानगर्यां यवनाकुलायां यः कारयामास महाप्रतिष्ठां मुनि द्विविद्यो "प्रमितेशुभाब्दे, विस्तारतः सूरि जिनोदयाख्यैः । । १५ ।। तथा मनुष्यलक्षं...: स्फुटघोटकपेटकम् शकटानां सहस्त्राणि मीलयेत्वा महाजनम् ।।१६।। माग्वणानां समस्ताशा... आपूरयन् धनम्। सद्दानधारया वर्षन् मार्ग भाद्रपदां बुवत् ।।१७।। चतुर्द्दशशते वर्षे षट्त्रिंशदधिके वरे (१४३६) श्री जिनराजसूरीणां पादाब्जं सिरसा स्पृशत् ।। १८ ।।
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श्री आंबराज आदाय संघेशपदमुत्तमम् । शत्रुञ्जयो ज्ञ्जयञ्जन्ताद्रि तीर्थे यात्रा विनिर्ममे ।। १९ ।। श्रेष्ठी कहना मतापूंजी ते स्तथा । श्री शत्रुञ्जयतारङ्गारासणेषुनुता जिना ।। २० ।। पुनरस्तो कलोकयो धनेश्वरमनोहरम्। अत्याडम्बरतः संघ विधाय शकटो द्भटम् ।। २१ । । साधर्मिकादिवात्सल्यं कुर्वन्दानं ददन्मुदा । श्री संघेशपदं लात्वा श्री जिनराजसूरियुक् ।। २२ ।। चतुर्दशे शते वर्षे नन्द' वेदमिते' करोत् । यात्रां शत्रुंजयेतीर्थे रैवते चापि कीहट: ।। २३ ।। तथा श्रीकीहटाद्यैश्च पुञ्जी मातुः सुबान्धवैः । * मालारोपणोत्सवो ऽकारि श्रीजिनराजसूरिभिः ।। २४ ।। तदावृतोत्सवो भावसुन्दरस्य यतेरपि । चतुर्द्दशशते a बाण' प्रमितवत्सरे ।। २५ ।। धन्नाधामाभिधानाभ्यां पंचम्युद्यापनं महत् सागरचंद्रसूरीणामुपदेशात्कृतं वरम् ।। २६ ।। इतश्चास्मिन् महादुर्गे चतुर्द्दशशते मुदा । त्रिसप्ततितमे वर्षे सफलीकुर्व्वता धनम् ।। २७ ।। संघाधिपतिना श्रेष्ठि धनराजेन साधुना जगपालसुताद्यात्मपरिवारयुतने सर्व संघं समाकार्य नानादेशनिवासिनम् । विशिष्टा सुप्रतिष्ठाप्यं बिम्बानां कारितोत्तमा ।। २९ ।। एवंविधानिसद्धर्म कार्याणि प्रतिवासरम् ।
वै ।। २८ ।।
. कुर्वाणास्ते चिरं श्राद्धाः विजयन्ते महीतले ।। ३० ।। इतश्च -- श्री वीरतीर्थंकर राजतीर्थे स्वामीसुधर्मागणभृद्वभूव ।
तदन्वये चन्द्रकुलावतंश उद्योतन श्रीगुरुवर्द्धमानः ।। ३१ ।। जिनेश्वरः श्रीजिनचन्द्रसूरि संविग्नभावोऽभयदेवसूरि । वैरंगिक श्री जिनवल्लभोऽपि, युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ।। ३२ ।। भाग्याधिकः श्री जिनचंद्रसूरि क्रियाकठोरो जिनपतिसूरि । जिनेश्वरसूरिरुदारचेताः जिनप्रबंधोऽपितपोपनंता ।। ३३ ।। प्रभावक : श्रीजिनचन्द्रसूरि : सूरिर्जिनादिः कुशलावसानः । पद्मपदं श्री जिनपद्मसूरिर्लब्धेर्निधानं जिनलब्धिसूरिः । । ३४ । । सैद्धान्तिकः श्रीजिनचन्द्रसूरिर्जिनोदयः सूरिरभूदभूरि । ततः परं श्रीजिनराजसूरिर्वाकचातुरीरंजितदेवसूरिः । । ३५ । । स्वबंधुजिंदामिधमूलराज : संयुक्तसंघाधिप आंबराजः । अलेखयत्पुस्तकमात्ममातृपूंजी सुपुण्याय गिराथ तेषां ।। ३६ ।।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासप्रशस्ति का संक्षिप्त सार
का उद्यापन आचार्य श्री सागरचंद्रसूरि के उपदेश से किया। सं.
१४७३ में इसी महादुर्ग जैसलमेर उत्सवादि के आयोजन में धन उपकेशवंश की श्रेष्ठि-रांका शाखा/गोत्र के यक्षदेव के पुत्र सफल किया। संघपति सेठ धनराज ने अपने पुत्र जगपाल आदि झांबट के पुत्र धांधल हुए। उनके पुत्र गजू और भीमसिंह थे। गजू के के साथ नाना देश निवासी संघ को आमंत्रित कर प्रतिमाओं की पत्र गणदेव और मोक्षदेव थे। गणदेव के मेघा, जेसल, मोहन और प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार प्रतिदिन धार्मिक कार्य करते हुए रसाल हुए। जेसल की भार्या पूरी के तीन पुत्र प्रसिद्ध गुणवान, श्राक्क पृथ्वी पर चिरकाल जय विजयी हो। धनवान और तीन लोक में मण्डनस्वरूप थ। उनके नाम आबा, इसके पश्चात भगवान महावीर के शासन में गणधर सधर्मा जीदा और मलराज थे। आबरज की भायो बहुरी के दो पुत्र शिवराज स्वामी की परंपरा में चंद्रकल के उद्योतन सरि से श्री जिनराजसरि और महीराज तथा राणी और श्याणी दो पुत्रियाँ थीं, मूलराज की
पर्यंत पट्टधरों की नामावली देने के पश्चात् ३६वें श्लोक में स्वबंधु प्रिया माल्हण दे तथा पुत्र सहस्त्रराज देवगुरु भक्त था।
जिंदा, मूलराज सहित आंबराज ने यह ग्रंथ माता पूंजी और अपने मोहन की भार्या पूंजी के चार पुत्र ऋषभदत्त, धामा, कान्हा पुण्यार्थ लिखाने का उल्लेख किया है। और जगमाल थे। पासदत्त के सरस्वती और कौतिग देवी दो
"संवत् १४९७ वर्षे अश्वयुजिमासिश्रीवलक्षपक्षे १० स्त्रियाँ थी। सरस्वती के वील्हा और विमल दो पुत्र थे। कौतिगदेवी
विजयदशम्यां सोमे अद्येह श्रीजेसलमेरुमहादुर्गे श्रीवैरिसिंह भूमृति के पुत्र कर्मण, हेमा और ठकुरा थे। धन्ना संघपति की वल्लभा
राज्यं प्रति पालयति सतिश्रीतरहागच्छगगनदिननाथायमान आल्ही थी, जिसमें पुत्री हस्तू, चंद्रावली मनोहर थी। नायकदे श्राविका ने गुरुवर श्री जिनभद्रसरिजी के वचनों से संदेहविषौषधि
श्रीजिनराजसूरिपट्टसारसहकारवनवसंतायमानश्रीमन्श्री
जिनभद्रसूरीश्वरविजयराज्ये श्रीकल्पपुस्तक प्रशस्तिः समर्थिता। ग्रंथ लिखवाया।
शिवमस्तु सर्वजगतः।।श्री।।श्री।।" आंबा ने सं. १४२५ में श्री जिनेश्वरसूरि गुरु के उपदेश से
(श्री जेसलमेरनगरस्य बृहत्खरतटगच्छोपाश्रये पंचायती भंडारेप्रति।) देरावर दादा तीर्थ यात्रोत्सव किया। उच्चा नगरी जो यवना कुल थी, उसमें से १४२७ में श्री जिनोदयसूरिजी से प्राण-प्रतिष्ठा करवाई
करवाई किले के वर्तमान मंदिरों में सर्वप्राचीन श्री पार्श्वनाथ जिनालय तथा लाख मनुष्य..घोड़े, हजारों गाड़ों के साथ महाजनों ने मिलकर
है, जिसका नाम लक्ष्मणबिहार तत्कालीन महारावल लक्ष्मणजी प्रयाण किया। याचकजनों की आशा पूर्ण की। भाद्रव मास की
के नाम से यह खरजरप्रासादचूडामणि प्रसिद्ध किया। सं. १४५९ भांति धन की दानवृष्टि की।
में निर्माण प्रारंभ होकर सं. १४७३ में १४ वर्षों में पूर्णाहति हुई। सं. १४३६ में श्री जिनराजसरि महाराज की चरण-वंदना
श्री पार्श्वनाथ मंदिर निर्माताओं द्वारा दो प्रशस्तियाँ सुशोभित संघ सहित की। शत्रंजय गिरनार तीर्थों की यात्रा करके आंबराज हैं जो नाहरजी के लेखांक २११२ और २०१३ में प्रकाशित हैं। आदि ने संघपति पद प्राप्त किया। सेठ कीहट, धन्ना आदि ने जिनके आधार पर उपरिलिखित वंशवृक्ष दिया गया है, जो माता पंजी सहित शत्रंजय, तारंगा. आरासण आदि तीर्थों की प्रकाश्यमान इस कल्पसूत्र प्रशस्ति जो सं. १४९७ में लिखी गई. यात्रा की। फिर बहत से धनाढ्य लोगों के साथ संघ सहित से समर्थित है। यह २२ और २४ पंक्तियों में शिलोत्कीर्णित है। सुसज्जित मनोहर गाड़ियों में तीर्थयात्रा करते हुए स्वधर्मवात्सल्य ।
पर्युक्त वंशवृक्ष में कल्पसूत्रप्रशस्ति में प्राप्त पत्नियों और पुत्रियों एवं दान-पुण्य करने में सतत संलग्न रहकर श्री जिनराजसरिजी के नाम भी जोड़ दिए गए हैं। गणदेव के पुत्रों में मोहन के बाद महाराज से संघपति पद प्राप्त किया।
वेडूर के स्थान पर कल्पसूत्रप्रशस्ति में रसाल नाम लिखा है।
कुछ नाम अन्य लेखों से भी समर्थित होते हैं। सं. १४४९ में सेठ कीहट आदि ने माता पंजी तथा बंधु बांधवों सहित शत्रुजय, गिरनार यात्रा कर श्री जिनराजसूरिजी के
- पूज्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरिजी महाराज के दफ्तर में इस सान्निध्य में मालारोपण महोत्सव मनाया एवं यति भावसंदर का रांका सेठ परिवार से संबंधित जो कवित्त मिला है. उसे यहाँ दीक्षोत्सव संपन्न हुआ। सं. १४५४ में धन्ना, धामा द्वारा पंचमी तप उद्धृत किया जा रहा है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासकवित्त
सूरै समरै नोडराज सोड काम उत्तम कीया। कीहट नो जिण भुवण जेण मंइयो जेसाणै।
टापर नै भोजै एण परि जैतारण जगजस लीया।। तासु वंश जावड़ सुजस दारव्यौ भुणियाणै।।
इस कवित्त के नामों में तथा आगे दिए जाने वाले वंशवृत्त सोनेरूपै साह सोह जिण सासण चाढ़ी।
के नामों में (कीहट के पुत्रों के नामों में) साम्यता देखी जाती है। तेजपथग पुहकरण भला जु सेठ भराडी।। विशेष शोध आवश्यक है।
वंशवृक्ष
रांका श्रेष्ठि जाखदे - आसदेव
झांबट धांधल
भीमसिंह
लाखण
गणदेव
मोखदेव
मम्मण
मेघ
मेघ
जेसल .
वेडूर
(भार्यापुरी)
मोहन (पंजी)
जयसिंह
नरसिंह
आंबा (बहुरी)
जीदा मूलराज
(माल्हणदे)
रूपा
गेल्हा
भोज
हरिराज
सहसराज
शिवराज । महीराज
पुत्रियाँ-राणी श्याणी
देल्हा
कीहट (कपूरी)
पासदत्त (१ सरस्वती २ कौतिगदे),
धन्ना (आल्ही)
कृपा
ऋषभदत्त धामा कान्हा जगमल
(चांपू)
जमपाल नाथू अमर (नायक दे) पुत्री-चन्द्रावली हस्तू
सोमा (मकू) मीरदत्त
विमलदत्त कर्मण हेम ठाकुरसिंह
ఆరుగురు గురువారుతీరుపోరు సాగురువారూరురురురురురురురురురురూరంగారురంగురువారం
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हापरा १
माणक १ गिरो २ रामो
आसो १ केलो २
सोनो १
सूरौ १ भोजोलखण ३ जइयो
सांगो
मांडो
every
हीरो १ खेती२ मानो ३ देदो ४ सावल थोभण
लालो भगवान
समेरा
जय
कमा
T
ढाकुर
घ
हाथी १ जेहोर मन्नो ३
चोला
हरो १
रहो
वणो १ वच्छो २ अमरोइ ३ समरय
रूपो
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
छजौ
कीहट
जावड़
सेरबो १ लालो २
-
तेज़ो जयसिंह ९ मोटा
२
जसो १ परीयो २ आणंद ३ सारंग कपूर
रूपा जावड़ रो केड़ सुखा रे साथ लुको थयो पुर मांडल में रहे छे ।
जगमाल वेणो विरधो
वीरो २ सकरमण ३
सतीदास आणंदो १ जगों २ अजबो धन्नो वरवतो १ चेनो २
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नोडो
भादो, ३
मंडलक ४ बलराज २
कानो ९
घिरो १
खेतो १ लखो २ सीहा ३ कानो १ भीनो २
वीरम ९ जोधा २ जयवंत ३ रवीमा४ सीचो१ साकरर सिवो ३ सुरताण४
सांडो
1
सहजा
जगाँ
अजबो१ आसोर
कीकम
नोथो
-
1
लखमो
माणी
1
बुधौ
कंमा १ केलो २
रवीमो१
भूपति २ लालो ३
जालप
मेहाजल
जीवोर
केशवर तोर दामोदर दे
मोहन१ गिरधर२ भारमल३
जैमों उत्तमो
वरवतो
अमरो
भाई दास१ सतीदासर भैरो३ किसनो४
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________________ --चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास सेठ झांझण जैतो सोमो मोकल 99 मालोर ठाकुर बूचो मोकल 1 पातो२ हरराज कुंभो 1 पदमी मालो२ ठाकुर३ बरजांग 1 वीदा 2 हरखो 3 झाझो पेसो जावड़ करमो मेरो रुपो 1 राणौ 2 रायपाल 3 अमीपाल श्रीकर्ण देदो (ये सब बागसूरी में है।) (बूंदी छै) (कोठिये छै) साकर समरथर नेमो३ नोडो 4 सदो५ (खान लै मसूदै वास छै) अमरो 1 लाखो 2 वीरपाल 3 कालो 4 जोधा 5 तेजी सावल वछा 1 हासो 2 हेमो 3 नेतो 1 खेतों 2 कालो देवराज / वछौ जीवो 1 जगू 2 लधो 3 भैरव 4 वधो वृद्ध आद्यगणे जैतारण रा.......... सेठ नाथा खेतोजी 1 हीरो 2 मानो 3 देदो 4 ईसर सोभा 1 आभार तिलोक चंद 1 खुश्याल चंद 2 गुमान चंद 3 हरचंद 4 खीमराज 1 भीमराज 2 माणकचंद - भैरो महाचंद 1 विरधो 2 मोती 3 जीवराज 1 विजयराज 2 खूबो 1 हुकमो 2 चेनो 3 सवाई 4 हेमराज 1 अखो 2 विनयचंद 3 सांवत 4 रूपो यह वंशवृक्ष पूज्य श्री जिनधर्मेन्द्रसूरिजी महाराज के दफ्तर के आधार पर तैयार किया गया है। यद्यपि शिलालेखों तथा कल्पसूत्रप्रशस्ति के तत्कालीन उल्लेखित कीहट के वंशजों के नामों में नामांतर हो सकता है। यह अंतर दो पत्नियों या ऐसे अन्य किसी कारण से हो सकता है ? इन वंशावृक्षों में जहाँ तक नाम आए हैं, उनके बाद उनके वंशज वर्तमान के नाम जोड़कर इन्हे पूरा कर सकते हैं। श्री पार्श्वनाथ भगवान के वर्तमान जिनालय तथा इससे पूर्व के जिनालय का वर्णन ताडपत्रीय ग्रंथों तथा युगप्रधानाचार्य गुर्वावली से लिया गया है तथा वर्तमान का इतिहास श्रीपूज्य जी के दफ्तर, कल्पसूत्रप्रशस्ति तथा शिलालेखों के आधार पर लिखा गया है। जैसलमेरके कलापूर्ण जैनमंदिर तो अपने कला एवं वैभव के लिए विश्वविश्रुत हैं। milaritairrorisutrawbrowamisamarorishivariridi120dmiritinidiomidnidmirmidiomiadmirabarivarta