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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासजो नगर बसने के समय बसा था, उसकी अवस्थिति का कोई दो-दो वर्ष के अंतर में तीन बार शायद ही आरोपित हुए हैं। ये अभिलेख आदि प्राप्त नहीं होता। यवन शासक अलाउद्दीन किस स्थान पर थे, यह जानने के लिए हमारे पास कोई साधन खिलजी की ध्वंस लीला के शिकार प्राचीन मंदिर कितने क्या नहीं है, किन्तु प्राचीन क्षतिग्रस्त जिनालय के स्थान पर हुए हों, थे, उनका अवशिष्ट शिल्पगत प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु अनुमान सहज ही किया जा सकता है। युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली आदि एवं ग्रंथों की प्रशस्तियों में प्राचीन पंद्रहवीं, सोलहवीं शती के जैलसमेर की जाहोजलाली मंदिर की प्रतिष्ठा के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं। अपने पूर्ण मध्याह्न में थी और उसी समय जैसलमेर दुर्ग पर ताडपत्रीय ग्रंथप्रशस्तियों से सिद्ध होता है कि मणिधारी विश्वविख्यात कलापूर्ण जिन मंदिरों का क्रमशः निर्माण हुआ दादा श्री जिनचंद्र सूरि के पट्टधर आचार्य श्री जिनपतिसूरिजी के था। इन मंदिरों का इतिहास जानने के लिए मंदिरों, शिलालेख परम् भक्त सेठ क्षेमंधर के पुत्र जगद्धर ने यहाँ पार्श्वनाथ जिनालय प्रशस्ति, प्रतिमालेख और चैत्य-परिपाटी स्तवनादि से बड़ी सहायता का निर्माण कराया था। आचार्यश्री जिनपतिसूरिजी महाराज सं. मिलती है। १२६० में जैसलमेर पधारे उस समय यहाँ देवग्रह बना हुआ था, जैसलमेर में सर्वप्रथम पार्श्वनाथ जिनालय निर्माण सेठ जिसमें फाल्गुन सुदि २ के दिन उन्होंने श्री पार्श्वनाथ भगवान की जगद्धर का गौरवपूर्ण वंश परिचय ताड़पत्रीय ग्रंथ-प्रशस्तियों के प्रतिमा स्थापित की। इस प्रतिष्ठा-स्थापना का महोत्सव सेठ आधार पर दे रहा है। जगद्धर ने बड़े समारोहपूर्वक किया था। ये बोथरा बच्छावत ऊकेशवंश में आषाढ़ सेठ महर्द्धिक और धर्मिष्ठ हुए हैं। वे आदि के पूर्वज थे। पहले महेश्वर धर्म को मानने वाले माहेश्वरी थे, जो प्रतिदिन पाँच सं. १३२१ में जिनेश्वरसूरिजी (द्वितीय) ने जैसलमेर में सौ याचकों, पथिकों को घृत व अन्नदान करते थे। इन्होंने दम्भी जसोधवलकारित देवगृह के शिखर पर मिती ज्येष्ठ शुक्ल १२ के व्यास की दुष्टता देखकर माहेश्वरत्व छोड़ दिया, क्योंकि लघुकर्मी दिन भगवान पार्श्वनाथ की स्थापना एवं ध्वजारोपण किया था। थे। अतः उपकेशपुर में वीतराग मुनिपुङ्गवों से सम्यक्त्वरत्न इसी प्रकार सं. १३२३ मिति ज्येष्ठ सुदि १० के दिन जावालिपुर में प्राप्त कर आर्हत् धर्म स्वीकार कर सपरिवार श्रावक हो गए। जेसलमेर के विधिचैत्य पर आरोपण करने के लिए सा. नेमिकमार इनके पुत्र जामुबाग और उनका पुत्र सेठ बोहित्य हुआ इसके सा. गणदेव के बनवाए हुए स्वर्णमय दण्डकलश की प्रतिष्ठा हुई। पद्मदेव और वीह नामक दो पत्र थे। सेठ पद्मदेव भार्या देवश्री ये दोनों भ्राता सेठ यशोधवल के वंशज थे। (आवश्यकलघु का पुत्र सुप्रसिद्ध सेठ क्षेमंघर हुआ। पद्मदेव ने नागौर के पास वृतिप्रशस्ति पृ. ३८) सं. १३२५ में वैशाख सुदि १४ के दिन । कुडिलुपुर में जिनालय निर्माण कराया। क्षेमंधर ने मरुकोट दुर्ग स्वर्णमय दण्डकलशादि का आरोपणोत्सव विशेषविस्तारपूर्वक में मणिधारी दादा श्री जिनचंद्रसूरिजी से प्रतिबोध पाकर विधि सम्पन्न हुआ था। युगप्रधान-आचार्य-गुर्वावली से ज्ञात होता है मार्ग स्वीकार किया और सं. १२१८ वैशाख सुदि १० को धर्कट कि उस समय जैसलमेर मरुस्थल के जनपदों में मुख्य महादुर्ग वंशीय पार्श्वनाथ के पत्र सेठ गोल्लककारित चंद्रप्रभ जिनालय था। श्री जिनप्रबोध सूरिजी महाराज स. १३४० के फाल्गुन में की 'प्रतिष्ठा दण्ड-कलश ध्वजारोहण के समय ५०० द्रम्म देकर यहाँ पधारे तब महाराज कर्णदेव ने सामने आकर स्वागत किया माला ग्रहण की। उस समय वहाँ राजासिंहबल का राज्य था। और आग्रहपूर्वक चातुर्मास भी कराया। दादाश्री जिनकुशलसूरिजी सेठ क्षेमंधर के दो पुत्र महेन्द्र और प्रद्युम्न इतः पूर्व दीक्षित महाराज ने सिंधुदेश-विहार के समय जैसलमेर पधारकर हो चुके थे, वे चैत्यवासी-परंपरा में थे। अपने पुत्र प्रद्युम्नाचार्य स्वहस्तकमलों से प्रतिष्ठित श्री पार्श्वनाथ भगवान को वंदन किया। को सुविहित विधिमार्ग में लाने के लिए इन्होंने सं. १२४४ में उपर्यक्त प्रमाणों से जैसलमेर बसने के पश्चात् वर्तमान आशापल्ली में श्री जिनपतिसूरीजी के साथ शास्त्रार्थ कराया और मंदिरों के निर्माण से पूर्व वहाँ श्री पार्श्वनाथ स्वामी का स्वर्ण विधिचैत्यों की गरिमा मान्य कराई पर वे विधि मार्ग में न आए। दण्डकलशयुक्त सौधशिखरी जिनालय होना सिद्ध होता है। ये । अजयपुर के विधि चैत्य में मण्डप-निर्माण हेतु सेठ क्षेमंधर ने भ मंदिर एकाधिक हो सकते हैं, क्योंकि स्वर्ण-दण्ड-कलश आदि सोलह हजार रुपए प्रदान किए और हजारों पारुत्थक (मद्रा) inodrowondooriwaridwohrowdriwaridrodaridrira[११४Hiwariridwaridniramidniduiriramidairaniudnoramonand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211060
Book TitleJaisalmer Puratattvik Tathya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size864 KB
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