Book Title: Jainyoga ka Tattvamimansiya Adhar Author(s): Sudha Jain Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 3
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन होती है। इसी आधार पर सत् को परिभाषित करते हुए उम ने कहा है सत्, उत्पाद, व्यय या विनाश और स्थिरता युक्त होता है। आगे चलकर इसे ही दूसरे रूप में परिभाषित किया गया है'गुण और पर्याय वाला द्रव्य है।' जिसमें उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय आ गया और ध्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन का सूचक है तथा ध्रौव्य नित्यता की सूचना देता है । परन्तु उत्पाद एवं व्यय के बीच एक प्रकार की स्थिरता रहती है जो न तो कभी नष्ट होती है और न उत्पन्न ही । इस स्थिरता को ध्रौव्य एवं तद्भावाव्यय भी कहते हैं । यही नित्य का लक्षण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है-- जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला है, उत्पाद, व्यय और श्रव्ययुक्त है, गुण और पर्यायुक्त है वही द्रव्य है।" यहां यह स्पष्ट कर देना उचित जान पड़ता है कि कहीं-कहीं द्रव्य और सत् को एक-दूसरे से भिन्न माना गया है। अनुयोगद्वार सूत्र में तत्त्व को सामान्य लक्षण द्रव्य माना गया है और विशेष लक्षण के रूप में जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य माने गए हैं। १० इसका अभिप्राय यह • कि द्रव्य और तत्त्व कमोवेश अलग-अलग तथ्य नहीं है। इस संदर्भ में डा. मोहनलाल मेहता के विचार इस प्रकार हैं- जैन आगमों में सत् शब्द का प्रयोग द्रव्य के लक्षण के रूप में नहीं हुआ है। वहाँ द्रव्य को ही तत्त्व कहा गया है और सत् के स्वरूप का सारा वर्णन द्रव्य-वर्णन के रूप में रखा गया है। द्रव्य के भेद 1 द्रव्य के वर्गीकरण को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। परंतु प्रायः सभी विद्वान् मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद मानते हैं जीव और अजीव चैतन्य धर्मवाला जीव कहलाता है तथा उसके विपरीत धर्मवाला अजीव । इस तरह सम्पूर्ण लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है। चैतन्य लक्षण वाले द्रव्य जीव विभाग के अंतर्गत आ जाते हैं और जिनमें चैतन्य नहीं है उनका समावेश अजीव-विभाग के अंतर्गत हो जाता है। परंतु जीवअजीब के भेद-प्रभेद करने पर द्रव्य के छः भेद हो जाते हैं। जीव द्रव्य अरूपी है अर्थात् जिसे इंद्रियों से न देखा जा सके वह अरूपी है, अतः जीव या आत्मा अरूपी है। अजीव के दो भेद होते हैं--- रूपी और अरूपी । रूपी अजीवद्रव्य के अंतर्गत पुद्गल आ जाता है। अरूपी अजीवद्रव्य के पुनः चार भेद होते हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, अद्धासमय (काल) । इस प्रकार Jain Education International द्रव्य के कुल छः भेद हो जाते हैं -- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें प्रथम पाँच अस्तिकाय द्रव्य कहलाते तथा काल अनस्तिकाय द्रव्य कहलाता है। जीव द्रव्य तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि उपयोग जीव का लक्षण है १४ । उपयोग का अर्थ होता है बोधगम्यता। अर्थात् जीव में बोधगम्यता होती है और बोधगम्यता वहीं देखी जाती है जहाँ चेतना होती है। अतः कहा जा सकता है कि चेतना जीव का लक्षण है। यदि उपयोग शब्द का व्यावहारिक लक्षण लें तो भी यही ज्ञात होता है कि चेतना जीव का लक्षण है। जिसमें चेतना नहीं होगी वह भला किसी चीज की उपयोगिता को क्या समझेगा? उपयोग में ज्ञान और दर्शन सन्निहित होते हैं। १५ उपयोग के दो प्रकार होते हैं--ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग । ज्ञान सविकल्प होता है और दर्शन निर्विकल्प होता है। अतः पहले दर्शन होता फिर इसका समाधान ज्ञान में होता है। अर्थात् विषयवस्तु क्या है? यह प्रश्न उपस्थित होता है तत्पश्चात् उसका समाधान होता है। ज्ञानोपयोग के दो प्रकार माने गए हैं, स्वभाव ज्ञान तथा विभाव ज्ञान" । विभाव ज्ञान के पुनः दो विभाग होते हैं-सम्यक् ज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान। इसी प्रकाश दर्शनोपयोग के भी दो भेद होते हैं -- स्वभावदर्शन तथा विभावदर्शन । विभावदर्शन के पुनः तीन भेदोहते हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन । इसके आगे सम्यक् ज्ञान, मिथ्याज्ञान आदि के भी भेद किए गए हैं, लेकिन यहाँ उनका वर्णन करना उपयुक्त नहीं जान पड़ता । जीव का स्वरूप जैन मान्यता के अनुसार सभी वस्तुओं में गुण और पर्याय होते हैं। जीव में भी गुण और पर्याय होते हैं। चेतना जीव का गुण है और जीव जो विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है, उसके पर्याय हैं। पर्याय की विभिन्न अवस्थाएँ भाव कही जाती हैं। इन्हें जीव का स्वरूप कहते हैं। जीव के पाँच भाव" इस प्रकार है-औपशमिक - उपशम का अर्थ होता है दब जाना । जब सत्तागत कर्म दब जाते हैं, उनका उदय रुक जाता है और उसके फलस्वरूप जो आत्मशुद्धि होती है, वह औपशमिक भाव कहलाता है। यथापानी में मिली हुई गंदगी का बर्तन की तली में बैठ जाना । Suraiy snovambray 3 hormonów For Private Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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