Book Title: Jainyoga ka Tattvamimansiya Adhar
Author(s): Sudha Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 8
________________ -तीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शत से आत्मा किस प्रकार छूटता है, इस समस्या का समाधान 9. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पा दव्वधुवक्तसंजुत्त। गुणवं च सपज्जायं, करते हुए मुनि नथमल कहते हैं--अनादि का अंत नहीं होता यह सामुदायिक नियम है और जाति से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति 10. अविसेसिए दव्वे, विसेसिए जीव दव्वे या अनुयोगद्वार - 123 / विशेष पर लाग नहीं होता। प्रागभाव अनादि है, फिर भी उसका ११.जैन-धर्म-दर्शन- डा. मोहनलाल मेहता, पृ. 120 अन्त होता है। स्वर्ण और मृत्तिका, घी और दूध का संबंध अनादि है फिर भी वे पृथक् होते हैं। ऐसे ही आत्मा और कर्म के अनादि / 12. विसेसिए जीवदव्वे अजीव दव्वे य। अनुयोगद्वार-सूत्र 123 / सम्बन्ध का अंत होता है, परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि 13. भगवता-सूत्र 15/2/4 इसका सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि है, व्यक्तिश: नहीं। 14. तत्त्वार्थसूत्र 15/2/4 इस तरह जैन चिन्तकों ने जीव और अजीव इन दो मौलिक 15. वहा 2 / 9 तत्त्वों के बीच संबंध माना है। यही सम्बन्ध जीव का और उसके 16. णाणुवओगो दुविहो, सहावणाणं विभावणाणंति। नियमसार 10 अनन्त चतुष्टयरूप रूप का घात करते हैं। फलतः वह बन्धन में 17. औपशमिकक्षायिकौ भागौ मिश्रश्च जीवस्य आ जाता है। कर्म पुद्गल से युक्त जीव मनसा, वाचा, काया स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च। तत्त्वार्थ सूत्र - 2/1 कर्मणा करते हैं और निरंतर कर्मपुद्गलों का बन्धन करते रहते 18. संसारिणा मुक्ताश्च। वही 2/10 हैं। योग के द्वारा इस संबंध की प्रक्रिया को रोककर पुनः शुद्ध 19. आत्मरहस्य--रतनलाल जैन. प. 30 मन को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मबंध को रोकना एवं / 20. जैन दर्शन: मनन और मीमांसा-मुनि नथमल, पृ. 252 कर्मक्षय की प्रक्रिया को अपनाना तभी सम्भव है, जब व्यक्ति २१.संसारिणस्त्रसस्थावरा। तत्त्वार्थ 2/12 उपर्यक्त अवधारणों को भली भाँति समझ सके। 22. स्याद्वादमञ्जरी-२०, षड्दर्शनसमुच्चय (गुणरत्न की टीका) 49 सन्दर्भ 23. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलाल संघवी) पृ. 67 1. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य 24. तत्त्वार्थ राजवर्तिक 5/1/19 देहस्य पुनरागमनं कुतः।। २५.नियमसार-३० 2. आचारांगसूत्र-- आत्मारामजी , प्रथम श्रुतस्कंध, चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक / 26. आकाशस्यावगाहः। तत्त्वार्थसूत्र 5/18 सूत्रकृतांग-संपा-पं.अ. ओझा, प्रथम श्रुतस्कंध, तृतीय खण्ड, 27. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः। वही 5/23 अध्ययन 11 / प्रथम खण्ड, गाथा 9-10 / 28. भगवतीसूत्र 12/5/4 3. भारतीय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, डा. बी.एन. सिन्हा, पृ. 118 / 29. जैन-धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृ. 445 4. चूलमालुक्यसुत 63, मज्झिम निकाय (अनु.) पृ. 251-53 / 30. स्थानांग 4/92 5. पोट्ठपाद सुत्त - 1/9, दीर्घनिकाय (अनु.) पृ. 71 / 31. जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। 6. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् / तत्त्वार्थसूत्र 5/29 / 32. जैन धर्म के प्राण, पृ. 24 7. गुणपर्यायवद् द्रव्यम्। वही 5/37 33. उत्तराध्ययन 28/30 8. सद्भावाव्ययं नित्यम्। वही 5/30 34. जैन बौद्ध और गीता का साधना मार्ग, डा. सागरमल जैन, पृ.५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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