Book Title: Jainyoga ka Tattvamimansiya Adhar Author(s): Sudha Jain Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 1
________________ जैनयोग का तत्त्वमीमांसीय आधार डा. सुधा जैन प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी... दर्शन के प्रमुख तीन पक्ष होते हैं-तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा अद्वैत वेदान्त में तत्त्वमीमांसा कहती है - 'ब्रह्म सत्यं और आचारमीमांसा। ये एक-दूसरे के अनुकूल तथा पूरक होते जगत् मिथ्या' अर्थात् ब्रह्म ही मात्र सत् है और जो जगत् के रूप हैं। इनकी अनुकूलता से ही ज्ञात होता है कि ये एक-दूसरे को में दिखाई पड़ता है, वह मिथ्या है, भ्रम है। भ्रम माया के कारण प्रभावित भी करते हैं। यदि ऐसा नहीं हो तो कोई भी दर्शन होता है। माया अज्ञान है, अविद्या है। आत्मा स्वतंत्र है, मुक्त है, आत्मघाती सिद्ध होगा। इसी बात की स्पष्टता के लिए भारतीय किन्तु माया से आच्छादित हो जाने के कारण जीव के नाम से दर्शन की कुछ शाखाओं को देखा जा सकता है-- जाना जाता है, और बंधन-भागी हो जाता है। संसार व्यवहार चार्वाक दर्शन में सिर्फ भौतिक तत्त्वों को ही मान्यता रूप है, जो असत् है, सिर्फ परमार्थ या ब्रह्म ही सत् है। जब तक प्राप्त है। उसमें ईश्वर आदि आध्यात्मिक तत्त्व नहीं हैं। जीव व्यवहार में घुला मिला होता है, तब तक वह बंधन में होता उसमें आध्यात्मिक तत्त्वों को अस्वीकार किया गया है, अत: है और व्यवहार से ऊपर उठकर जब वह परमार्थ से मिल जाता वह केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। क्योंकि भौतिक है तब उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अतः अद्वैत की तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण होता है। इतना ही नहीं वह मानता है कि आचारमीमांसा यह बताती है कि संसार को मिथ्या मानो और शरीर के नष्ट होते ही उसके साथ रहने वाली चेतना समाप्त हो __ अपनी तथा ब्रह्म की एकता को पहचानो। जो तुम वही ब्रह्म है, जाती है. शेष कछ नहीं रह जाता। अतः वर्तमान जन्म के जो ब्रह्म है वहीं तुम हो। यहा द्वत नहीं सिर्फ अद्वत है। अतिरिक्त पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जैन दर्शन में भी ऐसी ही प्रक्रिया देखी जाती है अर्थात् मरने वाले व्यक्ति के लिए न मोक्ष, न स्वर्ग और न नरक होता उसमें भी तत्त्वमीमांसा से ज्ञानमीमांसा और ज्ञानमीमांसा से है। जो कुछ है वह वर्तमान जीवन ही है, वर्तमान शरीर ही है। आचारमीमांसा। फिर धर्म के क्षेत्र में आया जाता है। जैन दर्शन अतः चार्वाक दर्शन अपनी आचारमीमांसा के क्षेत्र में सुखवादी में द्रव्य परम तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। द्रव्य के · तथा तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में भौतिकवादी हो जाता है। उसका प्रधानतः दो भेद होते हैं-अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अस्तिकाय मानना है कि जब तक जीओ, सुखपूर्वक जीओ, ऋण लेकर भी के पुनः दो विभाग देखे जाते हैं-जीव और अजीव। जीव स्वभावत: घी मिल सके तो बिन संकोच के पीओ ताकि शरीर पुष्ट हो, स्वप्रकाशित और पर प्रकाशक होता है। जीव स्वतंत्र होता है। स्वस्थ हो और तुम्हें दैहिक सुख मिले, क्योंकि शरीर नष्ट हो जाने वह अनन्त चतुष्टय का धारक होता है । सभी जीव समान होते हैं वाला है, इसका फिर आना-जाना संभव नहीं है। चूंकि चार्वाक तो फिर अनेक प्रकार के जीव क्यों होते हैं? कोई जीव विकसित दर्शन की तत्त्वमीमांसा भौतिकवादी है, इसलिए उस पर आधारित रूप में होता है तो कोई अविकसित रूप में ऐसा क्यों? इसका प्रमाणमीमांसा प्रत्यक्षवादी तथा आचारमीमांसा सुखवादी है। उत्तर जैन आचारमीमांसा देती है। जीवों में जो अंतर देखे जाते हैं पातंजल योग की तत्त्वमीमांसीय व्याख्या में चित्त एवं वे कर्मानुसार होते हैं। कर्मानुसार ही कोई छोटा शरीर पाता है तो उसकी वृत्तियों पर चिंतन हुआ है। चित्त की वृत्तियाँ होती हैं कोई बड़ा शरीर पाता है। जैन आचारमीमांसा अहिंसा का प्रबल समर्थन करती है। कहा जाता है-'अहिंसा परमो धर्मः।' ऐसा क्लिष्ट तथा अक्लिष्ट। क्लिष्ट वृत्तियाँ अविद्या तथा अज्ञान उत्पन्न करती हैं, जिससे बंधन होता है। अत: आचारमीमांसा में योग को क्यों? चूँकि हिंसा से कष्ट होता है। आचारांग सूत्र में कहा गया प्रधानता देते हुए कहा गया है-'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।' अर्थात् चित्त है-सभी जीव सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता, सभी जीना वृत्ति को रोकना योग है। योग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। चंकि हमें कष्ट होता है, जब diariandiardia-siandiardiandiardianslaturdustandar १ ]-roomirararasworstudioindiasiardiardiardiariaaran Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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