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जैनयोग का तत्त्वमीमांसीय आधार
डा. सुधा जैन प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...
दर्शन के प्रमुख तीन पक्ष होते हैं-तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा अद्वैत वेदान्त में तत्त्वमीमांसा कहती है - 'ब्रह्म सत्यं और आचारमीमांसा। ये एक-दूसरे के अनुकूल तथा पूरक होते जगत् मिथ्या' अर्थात् ब्रह्म ही मात्र सत् है और जो जगत् के रूप हैं। इनकी अनुकूलता से ही ज्ञात होता है कि ये एक-दूसरे को में दिखाई पड़ता है, वह मिथ्या है, भ्रम है। भ्रम माया के कारण प्रभावित भी करते हैं। यदि ऐसा नहीं हो तो कोई भी दर्शन होता है। माया अज्ञान है, अविद्या है। आत्मा स्वतंत्र है, मुक्त है, आत्मघाती सिद्ध होगा। इसी बात की स्पष्टता के लिए भारतीय किन्तु माया से आच्छादित हो जाने के कारण जीव के नाम से दर्शन की कुछ शाखाओं को देखा जा सकता है--
जाना जाता है, और बंधन-भागी हो जाता है। संसार व्यवहार चार्वाक दर्शन में सिर्फ भौतिक तत्त्वों को ही मान्यता रूप है, जो असत् है, सिर्फ परमार्थ या ब्रह्म ही सत् है। जब तक प्राप्त है। उसमें ईश्वर आदि आध्यात्मिक तत्त्व नहीं हैं।
जीव व्यवहार में घुला मिला होता है, तब तक वह बंधन में होता उसमें आध्यात्मिक तत्त्वों को अस्वीकार किया गया है, अत:
है और व्यवहार से ऊपर उठकर जब वह परमार्थ से मिल जाता वह केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। क्योंकि भौतिक
है तब उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अतः अद्वैत की तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण होता है। इतना ही नहीं वह मानता है कि
आचारमीमांसा यह बताती है कि संसार को मिथ्या मानो और शरीर के नष्ट होते ही उसके साथ रहने वाली चेतना समाप्त हो
__ अपनी तथा ब्रह्म की एकता को पहचानो। जो तुम वही ब्रह्म है, जाती है. शेष कछ नहीं रह जाता। अतः वर्तमान जन्म के जो ब्रह्म है वहीं तुम हो। यहा द्वत नहीं सिर्फ अद्वत है। अतिरिक्त पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जैन दर्शन में भी ऐसी ही प्रक्रिया देखी जाती है अर्थात् मरने वाले व्यक्ति के लिए न मोक्ष, न स्वर्ग और न नरक होता उसमें भी तत्त्वमीमांसा से ज्ञानमीमांसा और ज्ञानमीमांसा से है। जो कुछ है वह वर्तमान जीवन ही है, वर्तमान शरीर ही है। आचारमीमांसा। फिर धर्म के क्षेत्र में आया जाता है। जैन दर्शन
अतः चार्वाक दर्शन अपनी आचारमीमांसा के क्षेत्र में सुखवादी में द्रव्य परम तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। द्रव्य के · तथा तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में भौतिकवादी हो जाता है। उसका प्रधानतः दो भेद होते हैं-अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अस्तिकाय मानना है कि जब तक जीओ, सुखपूर्वक जीओ, ऋण लेकर भी के पुनः दो विभाग देखे जाते हैं-जीव और अजीव। जीव स्वभावत: घी मिल सके तो बिन संकोच के पीओ ताकि शरीर पुष्ट हो, स्वप्रकाशित और पर प्रकाशक होता है। जीव स्वतंत्र होता है। स्वस्थ हो और तुम्हें दैहिक सुख मिले, क्योंकि शरीर नष्ट हो जाने वह अनन्त चतुष्टय का धारक होता है । सभी जीव समान होते हैं वाला है, इसका फिर आना-जाना संभव नहीं है। चूंकि चार्वाक तो फिर अनेक प्रकार के जीव क्यों होते हैं? कोई जीव विकसित दर्शन की तत्त्वमीमांसा भौतिकवादी है, इसलिए उस पर आधारित रूप में होता है तो कोई अविकसित रूप में ऐसा क्यों? इसका प्रमाणमीमांसा प्रत्यक्षवादी तथा आचारमीमांसा सुखवादी है। उत्तर जैन आचारमीमांसा देती है। जीवों में जो अंतर देखे जाते हैं
पातंजल योग की तत्त्वमीमांसीय व्याख्या में चित्त एवं वे कर्मानुसार होते हैं। कर्मानुसार ही कोई छोटा शरीर पाता है तो उसकी वृत्तियों पर चिंतन हुआ है। चित्त की वृत्तियाँ होती हैं
कोई बड़ा शरीर पाता है। जैन आचारमीमांसा अहिंसा का प्रबल
समर्थन करती है। कहा जाता है-'अहिंसा परमो धर्मः।' ऐसा क्लिष्ट तथा अक्लिष्ट। क्लिष्ट वृत्तियाँ अविद्या तथा अज्ञान उत्पन्न करती हैं, जिससे बंधन होता है। अत: आचारमीमांसा में योग को
क्यों? चूँकि हिंसा से कष्ट होता है। आचारांग सूत्र में कहा गया प्रधानता देते हुए कहा गया है-'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।' अर्थात् चित्त
है-सभी जीव सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता, सभी जीना वृत्ति को रोकना योग है। योग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। चंकि हमें कष्ट होता है, जब diariandiardia-siandiardiandiardianslaturdustandar १ ]-roomirararasworstudioindiasiardiardiardiariaaran
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हई है
यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - कोई किसी प्रकार से हम पर घात करता है तो हमें भी समझना प्रत्येक वस्तु नित्य नहीं है, बल्कि नष्ट होती है, किन्तु नष्ट होकर चाहिए कि यदि हम किसी पर घात करेंगे तो उसको भी वैसा ही पनः जन्म लेती है। इस मान्यता में शाश्वतवाद तथा उच्छेदवा कष्ट होगा जैसा हमें होता है। क्योंकि सभी जीव समान है यह दोनों का खंडन किया गया है, क्योंकि शाश्वतवाद मानता है कि तत्त्वमीमांसा बताती है।
जो नित्य है वह समाप्त नहीं होता और उच्छेदवाद मानता है कि बौद्ध दर्शन में तत्त्वमीमांसीय समस्याओं की अवहेलना वस्तु नष्ट होती है पर फिर उत्पन्न नहीं होती है।
बुद्ध ने उन लोगों को नासमझ कहा जो अपने को जैन एवं बौद्ध दोनों ही दर्शनों में ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार तत्त्वमीमांसीय समस्याओं में उलझा लेते हैं। उनका कहना है किया गया है। इसलिए दोनों ही अपनी आचारमीमांसा में यह कि तत्त्वमीमांसा से कोई निश्चित ज्ञान प्राप्त नहीं होता और न मानते हैं कि व्यक्ति अपनी साधना, तपस्या तथा त्याग के पूर्ण ज्ञान होता है। जिस प्रकार अंधों को हाथी का आंशिक ज्ञान आधार पर देवत्व की ऊंचाई तक पहुंच सकता है। वह सर्वज्ञ हो प्राप्त होता है, क्योंकि वे हाथी के किसी एक अंग को ही छू पाते सकता है, केवली हो सकता है। ईश्वरवाद में ईश्वर ऊपर से हैं, संपूर्ण हाथी को एक साथ नहीं छू पाते, उसी प्रकार अवतरित होता है या उतरता है किन्तु जैन एवं बौद्ध दर्शनों में मानव तत्त्वमीमांसक आंशिक ज्ञान में ही उलझे रहते हैं। तत्त्वमीमांसा कर्म के बल पर ऊपर की ओर ईश्वर की ऊँचाई तक चढ़ता है। यदि एक जाल है जिसमें व्यक्ति प्रतिदिन फँसता जाता है, उससे तत्त्वमीमांसा में इन दोनों दर्शनों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार कर ली निकल नहीं पाता। उनके इस विचार की अभिव्यक्ति, ब्रह्मजाल होती तो इनका मानव इतना समर्थ नहीं बन सकता था। सुत्त में देखी जाती है। एक बार श्रावस्ती के जेतवन में विहार के अवसर पर मालुक्य पुत्र ने बुद्ध से लोक के शाश्वत - अशाश्वत,
तत्त्वमीमांसीय आधार अन्तवान् होने तथा जीवदेह की भिन्नता-अभिन्नता के विषय में साधक की अर्हता, पात्रता आदि उसकी तात्त्विक एवं दस मेण्डक प्रश्नों को पूछा था जिसे बुद्ध ने अव्याकृत कहकर मनोवैज्ञानिक संभावनाओं के संदर्भ में देखी जाती है। अतः उसकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया था। इसी प्रकार पोट्ठपाद योग की साधना में तत्त्वमीमांसीय आधार को समझना अति परिव्राजक ने जब ऐसे ही प्रश्न किए तब बुद्ध ने बड़े ही स्पष्ट आवश्यक है। जैन तत्त्वमीमांसा का आधारभूत सिद्धांत सत् या शब्दों में कहा था न यह अर्थयुक्त है, न धर्मयुक्त है, न निरोध के द्रव्य का विवेचन है। लिए है, न उपशम के लिए है, न अभिज्ञा के लिए है, न संबोधि। (परमार्थ ज्ञान) के लिए है और न निर्वाण के लिए है। इसलिए मैंने इसे अव्याकृत कहा है तथा मैंने व्याकृत किया है दःख के जैन दर्शन में सत् तत्त्व द्रव्या पदार्थ आदि शब्द लगभग हेतु को, दु:ख के निरोध को तथा दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद एक ही अर्थ में व्यवहृत हुए देखे जाते हैं। सत् या तत्त्व(Reality) को। इस प्रकार हम देखते हैं कि बद्ध ने आर्यसत्य यानी के विषय में दर्शनों में मतैक्य नहीं है। बौद्ध दर्शन में सत को आचारमीमांसा से अपना चिंतन प्रारंभ किया है। किन्तु जब वे निरन्वय क्षणिक माना गया है। सांख्य के अनुसार चेतन तत्त्व दूसरे आर्यसत्य का प्रतिपादन करते हैं तो उसमें प्रतीत्यसमत्पाद रूप पुरुष कूटस्थ नित्य तथा अचेतन तत्त्व रूप प्रकृति परिणामी आ जाता है जो बताता है कि एक के बाद दूसरा कारण उत्पन्न नित्य अर्थात् नित्यानित्य है। वेदान्त मात्र ब्रह्म को सत्य मानता होता है। उससे परिवर्तनशीलता का बोध होता है। आगे चलकर है। जैन दर्शन ने तत्त्व को सापेक्षतः नित्य-अनित्य, सामान्यपरिवर्तनशीलता क्षणिकवाद का रूप ले लेती है अर्थात् हर क्षण विशेष, कूटस्थ तथा परिवर्तनशील माना है। यह अनन्त धर्मों परिवर्तन होता है। फिर अनात्मवाद तथा शून्यवाद के सिद्धान्त वाला होता है। इन अनन्त धर्मों में से कुछ स्थायी होते हैं, जो आ जाते हैं। इस तरह तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त प्रस्फटित होते हैं. सदा वस्तु के साथ होते हैं। उन्हें गुण कहते हैं। कुछ धर्म ऐसे जो बौद्धाचार को प्रभावित करते हैं। निर्वाण की व्याख्या पर होते हैं जो बदलते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। सोने में सोनापन पूर्णत: बौद्ध तत्त्वमीमांसा का प्रभाव है। मध्यममार्ग को अपनाने गुण तथा अंगूठी या कर्णफूल आदि बाह्यरूप पर्याय हैं। पर्याय की बात इसलिए है कि प्रतीत्यसमत्पाद में बताया गया है कि अस्थायी होते हैं। एक पर्याय नष्ट होती है तो दूसरी पर्याय उत्पन्न
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
होती है। इसी आधार पर सत् को परिभाषित करते हुए उम ने कहा है सत्, उत्पाद, व्यय या विनाश और स्थिरता युक्त होता है। आगे चलकर इसे ही दूसरे रूप में परिभाषित किया गया है'गुण और पर्याय वाला द्रव्य है।' जिसमें उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय आ गया और ध्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन का सूचक है तथा ध्रौव्य नित्यता की सूचना देता है । परन्तु उत्पाद एवं व्यय के बीच एक प्रकार की स्थिरता रहती है जो न तो कभी नष्ट होती है और न उत्पन्न ही । इस स्थिरता को ध्रौव्य एवं तद्भावाव्यय भी कहते हैं । यही नित्य का लक्षण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है-- जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला है, उत्पाद, व्यय और श्रव्ययुक्त है, गुण और पर्यायुक्त है वही द्रव्य है।" यहां यह स्पष्ट कर देना उचित जान पड़ता है कि कहीं-कहीं द्रव्य और सत् को एक-दूसरे से भिन्न माना गया है। अनुयोगद्वार सूत्र में तत्त्व को सामान्य लक्षण द्रव्य माना गया है और विशेष लक्षण के रूप में जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य माने गए हैं। १० इसका अभिप्राय यह • कि द्रव्य और तत्त्व कमोवेश अलग-अलग तथ्य नहीं है। इस संदर्भ में डा. मोहनलाल मेहता के विचार इस प्रकार हैं- जैन आगमों में सत् शब्द का प्रयोग द्रव्य के लक्षण के रूप में नहीं हुआ है। वहाँ द्रव्य को ही तत्त्व कहा गया है और सत् के स्वरूप का सारा वर्णन द्रव्य-वर्णन के रूप में रखा गया है। द्रव्य के भेद
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द्रव्य के वर्गीकरण को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। परंतु प्रायः सभी विद्वान् मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद मानते हैं जीव और अजीव चैतन्य धर्मवाला जीव कहलाता है तथा उसके विपरीत धर्मवाला अजीव । इस तरह सम्पूर्ण लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है। चैतन्य लक्षण वाले द्रव्य जीव विभाग के अंतर्गत आ जाते हैं और जिनमें चैतन्य नहीं है उनका समावेश अजीव-विभाग के अंतर्गत हो जाता है। परंतु जीवअजीब के भेद-प्रभेद करने पर द्रव्य के छः भेद हो जाते हैं। जीव द्रव्य अरूपी है अर्थात् जिसे इंद्रियों से न देखा जा सके वह अरूपी है, अतः जीव या आत्मा अरूपी है। अजीव के दो भेद होते हैं--- रूपी और अरूपी । रूपी अजीवद्रव्य के अंतर्गत पुद्गल आ जाता है। अरूपी अजीवद्रव्य के पुनः चार भेद होते हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, अद्धासमय (काल) । इस प्रकार
द्रव्य के कुल छः भेद हो जाते हैं -- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें प्रथम पाँच अस्तिकाय द्रव्य कहलाते तथा काल अनस्तिकाय द्रव्य कहलाता है।
जीव द्रव्य
तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि उपयोग जीव का लक्षण है १४ । उपयोग का अर्थ होता है बोधगम्यता। अर्थात् जीव में बोधगम्यता होती है और बोधगम्यता वहीं देखी जाती है जहाँ चेतना होती है। अतः कहा जा सकता है कि चेतना जीव का लक्षण है। यदि उपयोग शब्द का व्यावहारिक लक्षण लें तो भी यही ज्ञात होता है कि चेतना जीव का लक्षण है। जिसमें चेतना नहीं होगी वह भला किसी चीज की उपयोगिता को क्या समझेगा? उपयोग में ज्ञान और दर्शन सन्निहित होते हैं। १५ उपयोग के दो प्रकार होते हैं--ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग । ज्ञान सविकल्प होता है और दर्शन निर्विकल्प होता है। अतः पहले दर्शन होता फिर इसका समाधान ज्ञान में होता है। अर्थात् विषयवस्तु क्या है? यह प्रश्न उपस्थित होता है तत्पश्चात् उसका समाधान होता है।
ज्ञानोपयोग के दो प्रकार माने गए हैं, स्वभाव ज्ञान तथा विभाव ज्ञान" । विभाव ज्ञान के पुनः दो विभाग होते हैं-सम्यक् ज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान। इसी प्रकाश दर्शनोपयोग के भी दो भेद होते हैं -- स्वभावदर्शन तथा विभावदर्शन । विभावदर्शन के पुनः तीन भेदोहते हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन । इसके आगे सम्यक् ज्ञान, मिथ्याज्ञान आदि के भी भेद किए गए हैं, लेकिन यहाँ उनका वर्णन करना उपयुक्त नहीं जान पड़ता ।
जीव का स्वरूप
जैन मान्यता के अनुसार सभी वस्तुओं में गुण और पर्याय होते हैं। जीव में भी गुण और पर्याय होते हैं। चेतना जीव का गुण है और जीव जो विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है, उसके पर्याय हैं। पर्याय की विभिन्न अवस्थाएँ भाव कही जाती हैं। इन्हें जीव का स्वरूप कहते हैं। जीव के पाँच भाव" इस प्रकार है-औपशमिक - उपशम का अर्थ होता है दब जाना । जब सत्तागत कर्म दब जाते हैं, उनका उदय रुक जाता है और उसके फलस्वरूप जो आत्मशुद्धि होती है, वह औपशमिक भाव कहलाता है। यथापानी में मिली हुई गंदगी का बर्तन की तली में बैठ जाना ।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन . क्षायिक - क्षय से क्षायिक बना है। कर्मों के पूर्णतः क्षय हो त्रस जीवों के चार प्रकार होते हैं--दो इन्द्रिय वाले जीव, तीन जाने से जो आत्मशुद्धि होती है, वह क्षायिक भाव कहलाता है। इन्द्रिय वाले जीव, चार इन्द्रिय वाले जीव तथा पाँच इन्द्रिय वाले जिस प्रकार पानी से गंदगी पूर्णतः दूर हो जाती है और पानी जीव। दो इन्द्रिय वाले जीव को स्पर्श के साथ रस का भी बोध स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों के सर्वांशतः क्षय हो जाने होता है। तीन इन्द्रियप्राप्त जीवों को स्पर्श, रस तथा गंध का बोध से आत्मा पूर्णरूपेण शुद्ध हो जाती है। उस स्थिति को क्षायिक होता है। चार इन्द्रिय वाले जीवों को स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप भाव कहते हैं।
का बोध होता है। पाँच इन्द्रिय प्राप्त जीवों को स्पर्श, रस, गंध,
- रूप, दृष्टि तथा ध्वनि का बोध होता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य, भाव बनता है। कुछ कर्मों का क्षय हो जाना तथा कुछ कर्मों का पशुप दब जाना क्षायोपशमिक भाव कहलाता है।
जीव के जन्मभेद औदयिक - दबे हुए कमों का उदित हो जाना औदयिक भाव
जीव की चार गतियाँ होती हैं-मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और कहलाता है।
नारक तथा तीन जन्म होते हैं-सम्मर्धन, गर्भ तथा उपपात। मातापारिणामिक - स्वाभाविक ढंग से द्रव्य के परिणमन से जो पिता के बिना ही उत्पत्तिस्थान में स्थित औदारिक पदगलों को भाव बनता है, वह पारिणामिक भाव कहलाता है।
पहले-पहल शरीर रूप में परिणत करना सम्मूर्धन जन्म कहलाता उपर्यक्त पाँचों भाव ही जीव के स्वरूप हैं। जीव के सभी हैं। उत्पत्तिस्थान में शुक्र और शोणित पुद्गलों को पहले-पहल पर्याय इन भावों में से किसी न किसी भाव वाले होते हैं। लेकिन शरीर के लिए ग्रहण करना गर्भ जन्म कहलाता है। उत्पत्तिस्थान पाँचों भाव सभी जीवों में एक साथ नहीं हो सकते हैं।
में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को पहले पहल शरीर रूप में परिणत
करना उपपात जन्म कहलाता है२३। जरायुज, अण्डज, पोतज जीव के विभाग
प्राणियों का गर्भ जन्म होता है, नारक और देवों का उपपात जीव को मख्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है जन्म होता है। शेष सभी प्राणियों का सम्मर्धन जन्म होता है। संसारी तथा मुक्त। जो जीव शरीर धारण कर कर्मबंधन के शालीन कारण नाना योनियों में भ्रमण करता है. वह सांसारिक जीव कहलाता है और जो सभी प्रकार के कर्मबंधनों से छूट जाता है,
जिसमें बोधगम्यता, चेतना आदि का अभाव होता है वह वह मुक्त जीव कहलाता है। संसारी जीव शरीर से भिन्न नहीं
अजीव कहलाता है। अजीव शब्द से ही प्रतीत होता है कि जो होता। यथा दूध में पानी, तिल में तेल आदि ये एक से प्रतीत कुछ
कुछ जीव में है, उसका अभाव होना। अजीव के चार प्रकार होते हैं ठीक वैसे ही संसारदशा में जीव और शरीर एक लगते हैं।
___ होते हैं--धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल। लेकिन ये संसारी आत्माएँ कर्मबद्ध होने के कारण अनेक योनियों धर्म - जो जीव पुद्गल आदि की गति में सहायता प्रदान में परिभ्रमण करती है और उनका फल भोगती है।९। मुक्त आत्माओं करता है, उसे धर्म तत्त्व कहते हैं। जैसे मछली पानी में स्वतः का इन सबसे कोई सम्बन्ध नहीं होता है। उनका शरीर, शरीरजन्य तैरती है, किन्तु पानी के अभाव में वह कदापि नहीं तैर सकती। क्रिया तथा जन्म और मृत्यु कुछ भी नहीं होता। वे आत्मस्वरूप यदि उसे उस स्थान पर रख दिया जाए। जहाँ पानी न हो तो हो जाते हैं। अतएव उन्हें शत् - चित्-आनन्द कहा जाता है। निश्चित ही उसकी गति रुक जायेगी। पानी स्वयं मछली को तैरने
संसारी जीव को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया के लिए तैयार नहीं करता फिर भी पानी के अभाव में मछली तैर है- त्रस तथा स्थावर२१। जिसमें गति होती है वह त्रस जीव नहीं सकती। यही गति तत्त्व है। कहलाता है। जिसमें गति नहीं होती है वह स्थावर जीव कहलाता
अधर्म---अगति तथा स्थिति में सहायक होता है। जीव है। स्थावर जीवों में जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा वनस्पति ,
और पुद्गल जब स्थिति की दशा में पहुंचने वाले होते हैं तब आते हैं। इन सबमें एकेन्द्रिय स्पर्श बोध होता है। इसी तरह
अधर्म उनकी सहायता करता है। इसके बिना स्थिति नहीं हो
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - सकती, जिस प्रकार धर्म के बिना गति नहीं हो सकती। चलता कि कर्मवाद में कहीं पर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के उपयोग हुआ पथिक छाया देखकर विश्राम करने लगता है। छाया पथिक का भी अवसर मिलता है अथवा वह मशीन की तरह पूर्व कर्मों को बुलाती नहीं है फिर भी छाया देखकर पथिक विश्राम करता है। के फल को भोगता हुआ तथा नए कर्मबंधों को प्राप्त करता इसलिए यहाँ छाया स्थिति का या अगति का कारण बनती है। हुआ गतिशील रहता है। यदि प्राणी को कहीं कोई स्वतंत्रता न हो
और वह मशीन की तरह ही कर्म के द्वारा चालित हो तब तो आकाश- अवगाह या अवकाश देने वाला तत्त्व आकाश कहलाता है। इसमें जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म तथा काल
कर्मवाद और नियतिवाद तथा पुरुषवाद में अन्तर क्या होगा? आश्रय पाते हैं। आकाश का काम अन्य सभी को आश्रय देना
किन्तु इच्छा-स्वातंत्र्य का जिस रूप में निरूपण जैन परंपरा में है। इसके दो भाग हैं--लोकाकाश तथा अलोकाकाश। आकाश
हुआ वह इस प्रकार है-- के जिस भाग में धर्म-अधर्म तथा पुण्य एवं पाप के फल होते हैं, (१) किए गए कमों का फल कर्ता को भोगना पड़ता है। उसे लोकाकाश कहते हैं और जिस भाग में धर्म-अधर्म तथा (२) पर्वकत कर्मो के फल को वह शीघ्र या देर से भोग सकता है। पुण्य एवं पाप के फल नहीं होते उसे अलोकाकाश कहते हैं। (३) बाह्य परिस्थितियों एवं अपनी आन्तरिक शक्ति को ध्यान
पुद्गल - अन्य दर्शन जिसे भौतिक तत्त्व के नाम से में रखते हुए प्राणी नये कर्मों का उपार्जन रोक सकता है। पुकारते हैं, बौद्ध दर्शन जिसका प्रयोग चैत्तसिक सत्ता के लिए (४) किन्तु ऐसा भी नहीं है कि प्राणी के मन में जो आए वही करता है, वह जैन दर्शन में पुद्गल कहलाता है। इसके चार धर्म करे। इन बातों से ऐसा लगता है कि कर्मवाद में इच्छा होते हैं--स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण।
स्वातांत्र्य तो है, किन्तु सीमित है। नियतिवाद में बँधे हुए स्पर्श के आठ प्रकार होते हैं -मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण,
व्यक्ति की तरह कर्मवादी पूर्णरूपेण परतन्त्र नहीं होता। स्निग्ध तथा रूक्षा
कर्म का स्वरूप रस के पाँच प्रकार होते हैं--तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर और कषाय।
जैन परंपरा में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड माना गन्ध के दो प्रकार होते हैं--सुरभिगन्ध तथा दुरभिगन्ध। गया है। आचारांग सूत्र में आया है कि कर्म वह है जिसके कारण वर्ण के पाँच प्रकार होते हैं--नील, पीत, शक्ल, कृष्ण तथा लोहित। साधन तुल्य होने पर भी फल का तारतम्य अथवा अन्तर मानव
जगत् में दृष्टिगत होता है। उस तारतम्य अथवा विविधता के काल - परिवर्तन का जो कारण हो वह अद्धासमय या
कारण का नाम कर्म है। प्रत्येक प्राणी का सुख-दुःख तथा काल कहलाता है। तत्त्वार्थराजवर्तिक में काल की व्याख्या दो
तत्सम्बन्धी अन्यान्य अवस्थाएँ उसके कर्म की विचित्रता एवं दृष्टियों से की गई है-- व्यवहार की दृष्टि से एवं परमार्थ की दृष्टि
विविधता पर आधारित होती है। सम्पूर्ण लोक कर्मवर्गणा तथा से। प्रत्येक द्रव्य परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए
नो कर्मवर्गणा इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। जीव भी उसकी जाति का विनाश नहीं होता। इस प्रकार के परिवर्तन
अपने मन वचन और काय की प्रवृत्तियों से इन परमाणुओं को परिणाम कहलाते हैं। इन परिणामों का जो कारण है, वह काल है।
ग्रहण करता रहता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ तभी यह व्यावहारिक दृष्टि से काल की व्याख्या है। इसी प्रकार प्रत्येक
होती है जब जीव के साथ कर्म संबद्ध हो तथा जीव के साथ द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षण भावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है। इस
कर्म तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन और काय की प्रवृत्ति वर्तना का कारण काल है। यह काल की पारमार्थिक व्याख्या है। होती है। इस प्रकार प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की कर्मसिद्धान्त
परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति के इस
कार्य-कारणभाव को दृष्टि में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के । कर्मवाद का एक सामान्य नियम है--पूर्वकृत कर्मों के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्यकर्म तथा राग - द्वेषादि रूप प्रवृत्तियों फल को भोगना तथा नए कर्मों का उपार्जन करना। इसी परंपरा को भावकर्म कहा गया है। द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्यमें बँधा हुआ प्राणी जीवन व्यतीत करता है। किन्तु प्रश्न उठता है कारणभाव मुर्गी और अण्डे के समान अनादि है। roinూరగారసాగరసారంగపారmod 4 Jabarimantram
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन कर्मबन्ध के हेतु
विवेचित किया जाता है। यह स्वभाव व्यवस्था है। स्वभाव या
कार्य भेद के कारण कर्मों के आठ भाग बनते हैं--ज्ञानवरणीय आत्मा और कर्म में सम्बन्ध होता है जिसके फलस्वरूप आत्मा में परिवर्तन होता है, वही बन्ध कहलाता है। आत्मा कर्म
कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुष्य से सम्बन्धित होता है, किन्तु क्यों दोनों के बीच संबंध स्थापित
कर्म, नामक़र्म, गोत्रकर्म तथा अन्तरायकर्म। होता है? इसके लिए दर्शनों में मतभेद हैं। बौद्धदर्शन वासना या
स्थितिबन्ध - यह कर्म की काल-मर्यादा को इंगित करता संस्कार को कर्मबन्ध का कारण बताता है? न्याय-वैशेषिक ने है। कोई भी कर्म अपनी काल-मर्यादा के अनुसार ही किसी जीव मिथ्याज्ञान को कर्मबंध का हेतु माना है। इसी तरह सांख्य ने यह के साथ रहता है। जब उसका समय समाप्त हो जाता है, तब वह माना है कि प्रकृति और पुरुष को अभिन्न समझने का ज्ञान, जीव से अलग हो जाता है। यही कर्मबंध की स्थिति होती है। कर्मबंध बनाता है। वेदान्त दर्शन में अविद्या को कर्मबंध का अनभागबन्ध - यह कर्मफल की व्यवस्था है। कषायों कारण बताया गया है। जैन दर्शन में कर्मबंध के निम्न कारण की तीव्रता और मन्दता के अनकल ही कर्मों के फल भी प्राप्त स्वीकार किए गए हैं--
होते हैं। कषायों की तीव्रता से अशुभ कर्मफल अधिक एवं मिथ्यात्व - अतत्त्व को तत्त्व समझना
बलवान होते हैं। कषायों की मन्दता से शुभ कर्म फल अधिक अविरति - दोषों में लगे रहना, उससे विरत न होना।
एवं बलवान होते हैं। - कर्तव्य, अकर्तव्य के विषय में असावधानी। प्रमाद
कर्म बंध की ये चार अवस्थाएँ साथ ही होती हैं किन्तु
आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए प्रदेश बंध कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ से ग्रसित रहना।
को पहला स्थान दिया गया है, क्योंकि जब तक कर्म और योग - मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों का होना।
आत्मा सम्बन्धित नहीं होंगे तब तक अन्य व्यवस्थायें सम्भव शरीर धारण करने वाला जीव ही प्रमाद और योग के नहीं हो पाएगी। कारण बन्ध में आता है। अतः प्रमाद और योग बंधन के कारण हैं। इसी तरह स्थानांग और प्रज्ञापना में कषाय यानी, क्रोध,
कर्म की विविध अवस्थाएँ मान, माया और लोभ को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। कर्म के बन्धन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय इत्यादि के
आधार पर कर्म की ग्यारह अवस्थाएँ मानी गई हैं-- कर्मबन्ध की प्रक्रिया
(१) बन्धन - कर्म और आत्मा का मिलकर एकरूप हो जाना लोक में सर्वत्र कर्म के पदगल होते हैं, ऐसी जैन दर्शन की
बंधन कहा जाता है। मान्यता है। जब जीव मन, वचन और काय से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तो उसके अनुकूल कर्म-पुदगल उसकी ओर
(२) सत्ता - बद्ध कर्म-परमाणु उस समय तक आत्मा के
साथ रहते हैं, जबतक निर्जरा या कर्मक्षय की स्थिति न आ आकर्षित होते हैं। उसकी प्रवृत्ति में जितनी तीव्रता और मन्दता
जाए। कर्म का इस प्रकार आत्मा के साथ रहना सत्ता है। होती है, उसके अनुसार ही पुद्गलों की संख्या अधिक या कम होती है। कर्म-बन्ध भी चार प्रकार से होते हैं--
(३) उदय - कर्म की वह अवस्था, जब वह अपना फल देता
है, उदय के नाम से जाना जाता है। प्रदेशबन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए गए कर्म-पुद्गलों
) उदीरणा - नियत समय से पहले कर्मफल देना उदीरणा का उसके साथ कर्म के रूप में बद्ध हो जाना प्रदेशबंध कहलाता है। इसको कर्म का निर्माणक माना गया है।
(५) उर्द्धवर्तना - कषायों की तीव्रता या मन्दता के कारण .. प्रकृतिबंध - प्रदेशबंध में कर्म - परमाणुओं के परिणाम
उसके फल बनते हैं, किन्तु स्थिति-विशेष के कारण पर विचार किया जाता है, किन्तु प्रकृतिबंध में कर्म के
फल में वृद्धि हो जाना उर्द्धवर्तना कहलाता है। स्वाभावानुकूल जीव में जितने प्रकार के परिवर्तन होते हैं, उन्हें andramodmornoonironidanandwanidroidna६ Horroraniramidrowondarororanirdowanorariorirand
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
( ६ ) अपवर्तना - यह अवस्था उर्द्धवर्तना के विपरीत है। स्थितिविशेष के कारण कर्मफल में कमी आ जाना अपवर्तना कहलाता है।
(७) संक्रमण - एक प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति जब दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति में परिवर्तित हो जाती है, तब संक्रमण काल कहलाता है।
(८) उपशमन - कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय तथा उदीरणा, संभव नहीं होती, उपशमन कहलाता है । उपशमन में कर्म दबा हुआ रहता है।
( ९ ) निधत्ति - इस अवस्था में यद्यपि उर्द्धवर्तना या अपवर्तना की असम्भावना नहीं रहती, फिर भी उदीरणा और संक्रमण का अभाव रहता है।
( १० ) निकाचन - कर्म जिस रूप में बद्ध हुआ उसी रूप में उसे अनिवार्य रूप से भोगना निकाचन कहलाता है।
( ११ ) अबाध - कर्मबन्ध के बाद किसी समय तक कर्मों का फल न देना अबाध समझा जाता है।
कर्मबन्ध का छूटना
कर्मबन्ध, जीव के प्रयास करने पर छूट भी जाता है । इसके लिए जैन दर्शन में रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकृचारित्रका प्रतिपादन किया गया है, जिसे त्रिविध योग की संज्ञा से विभूषित किया गया है। सम्यक् दर्शन सामान्यतः सात तत्त्वों का या विशेष रूप से आत्म-अनात्म का यथार्थ बोध है। या, यों कह सकते हैं कि सात तत्त्वों के प्रति श्रद्धा का होना सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन जैन आचार व्यवस्था की आधारशिला है। सम्यक् दृष्टि, तत्त्वरुचि, तत्त्वश्रद्धा, क्रोध, विश्वास, प्रतीति, रुचि आदि इसके अनेक पर्याय हैं। बिना यथार्थ दृष्टिकोण
साधना नहीं हो सकती और वह यथार्थ दृष्टिकोण तत्त्वमीमांसा को भली प्रकार से जानने के उपरांत ही प्राप्त हो सकता है। साधक को वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त होती है, वे दो प्रकार के हैं-- (१) व्यक्ति या तो स्वयं तत्त्वसाक्षात्कार करे या (२) उन ऋषियों के कथनों का श्रवण करे जिन्होंने तत्त्वसाक्षात्कार किया है।
तत्त्वश्रद्धा तो एक विकल्प के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वह तत्त्व साक्षात्कार का एक सोपान है। पं. सुखलाल
संघवी के शब्दों में तत्त्वश्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्वसाक्षात्कार है । तत्त्वश्रद्धा तो तत्त्वसाक्षात्कार का एक सोपान है। वह सोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्वसाक्षात्कार होता है । इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि बिना सम्यक् दर्शन के सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचार नहीं आता और सदाचार के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति संभव नहीं होती तथा कर्मावरण से जकड़े प्राणी का निर्वाण नहीं होता। सदाचरण एवं असदाचरण का निर्धारण कर्ता के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। भले ही व्यक्ति विद्वान् है, भाग्यवान है, पराक्रमी भी है, लेकिन उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा होने से अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति की ओर न अग्रसर करके बन्धन की ओर प्रेरित करेगा, क्योंकि असम्यक्दर्शी होने के कारण वह सराग दृष्टिवाला होगा और आसक्ति या फलाशा से निष्पन्न होने के कारण उसके सभी कार्य सकाम होंगे और सकाम होने से उसके बंधन के कारण होंगे। अतः असम्यक्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध हो जाएगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत सम्यक् दृष्टि या वीतराग दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित होने से शुद्ध होंगे।
अतः सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र रूपी त्रिविध योग के द्वारा जीव कर्मों का क्षय करता है । और मोक्ष की उपलब्धि करता है। कर्मबन्ध की दो स्थितियाँ होती हैं आस्रव और बंध। कर्मपुद्गलों का जीव के पास आना आस्रव है तथा जीव को प्रभावित कर देना बन्धन है । किन्तु इसके बाद की दो स्थितियाँ मोक्ष से सम्बन्धित हैं- संवर और निर्जरा। जो रत्नत्रय के आधार जीव में आते हुए नए कर्मों को रोकता है। उसे संवर कहते हैं और आए हुए कर्मों को भोगकर समाप्त करना अर्थात् क्षय करना निर्जरा कहलाती है। जीव इस अवस्था में कैवल्य प्राप्त करके सर्वज्ञ हो जाता है। यह जीवन की अवस्था है। इस अवस्था में कुछ कर्म रह जाते हैं जिनके कारण जीव का शरीर उसके साथ रहता है। जब शरीर भी नष्ट हो जाता है तब जीव विदेह मुक्त या पूर्णमुक्त हो जाता है। उसका कर्म से सम्बन्ध सदा-सदा के लिए छूट जाता
कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। जो अनादि होता है उसका अन्त नहीं होता । फिर कर्मबंध
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________________ -तीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शत से आत्मा किस प्रकार छूटता है, इस समस्या का समाधान 9. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पा दव्वधुवक्तसंजुत्त। गुणवं च सपज्जायं, करते हुए मुनि नथमल कहते हैं--अनादि का अंत नहीं होता यह सामुदायिक नियम है और जाति से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति 10. अविसेसिए दव्वे, विसेसिए जीव दव्वे या अनुयोगद्वार - 123 / विशेष पर लाग नहीं होता। प्रागभाव अनादि है, फिर भी उसका ११.जैन-धर्म-दर्शन- डा. मोहनलाल मेहता, पृ. 120 अन्त होता है। स्वर्ण और मृत्तिका, घी और दूध का संबंध अनादि है फिर भी वे पृथक् होते हैं। ऐसे ही आत्मा और कर्म के अनादि / 12. विसेसिए जीवदव्वे अजीव दव्वे य। अनुयोगद्वार-सूत्र 123 / सम्बन्ध का अंत होता है, परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि 13. भगवता-सूत्र 15/2/4 इसका सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि है, व्यक्तिश: नहीं। 14. तत्त्वार्थसूत्र 15/2/4 इस तरह जैन चिन्तकों ने जीव और अजीव इन दो मौलिक 15. वहा 2 / 9 तत्त्वों के बीच संबंध माना है। यही सम्बन्ध जीव का और उसके 16. णाणुवओगो दुविहो, सहावणाणं विभावणाणंति। नियमसार 10 अनन्त चतुष्टयरूप रूप का घात करते हैं। फलतः वह बन्धन में 17. औपशमिकक्षायिकौ भागौ मिश्रश्च जीवस्य आ जाता है। कर्म पुद्गल से युक्त जीव मनसा, वाचा, काया स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च। तत्त्वार्थ सूत्र - 2/1 कर्मणा करते हैं और निरंतर कर्मपुद्गलों का बन्धन करते रहते 18. संसारिणा मुक्ताश्च। वही 2/10 हैं। योग के द्वारा इस संबंध की प्रक्रिया को रोककर पुनः शुद्ध 19. आत्मरहस्य--रतनलाल जैन. प. 30 मन को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मबंध को रोकना एवं / 20. जैन दर्शन: मनन और मीमांसा-मुनि नथमल, पृ. 252 कर्मक्षय की प्रक्रिया को अपनाना तभी सम्भव है, जब व्यक्ति २१.संसारिणस्त्रसस्थावरा। तत्त्वार्थ 2/12 उपर्यक्त अवधारणों को भली भाँति समझ सके। 22. स्याद्वादमञ्जरी-२०, षड्दर्शनसमुच्चय (गुणरत्न की टीका) 49 सन्दर्भ 23. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलाल संघवी) पृ. 67 1. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य 24. तत्त्वार्थ राजवर्तिक 5/1/19 देहस्य पुनरागमनं कुतः।। २५.नियमसार-३० 2. आचारांगसूत्र-- आत्मारामजी , प्रथम श्रुतस्कंध, चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक / 26. आकाशस्यावगाहः। तत्त्वार्थसूत्र 5/18 सूत्रकृतांग-संपा-पं.अ. ओझा, प्रथम श्रुतस्कंध, तृतीय खण्ड, 27. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः। वही 5/23 अध्ययन 11 / प्रथम खण्ड, गाथा 9-10 / 28. भगवतीसूत्र 12/5/4 3. भारतीय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, डा. बी.एन. सिन्हा, पृ. 118 / 29. जैन-धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृ. 445 4. चूलमालुक्यसुत 63, मज्झिम निकाय (अनु.) पृ. 251-53 / 30. स्थानांग 4/92 5. पोट्ठपाद सुत्त - 1/9, दीर्घनिकाय (अनु.) पृ. 71 / 31. जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। 6. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् / तत्त्वार्थसूत्र 5/29 / 32. जैन धर्म के प्राण, पृ. 24 7. गुणपर्यायवद् द्रव्यम्। वही 5/37 33. उत्तराध्ययन 28/30 8. सद्भावाव्ययं नित्यम्। वही 5/30 34. जैन बौद्ध और गीता का साधना मार्ग, डा. सागरमल जैन, पृ.५२