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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन . क्षायिक - क्षय से क्षायिक बना है। कर्मों के पूर्णतः क्षय हो त्रस जीवों के चार प्रकार होते हैं--दो इन्द्रिय वाले जीव, तीन जाने से जो आत्मशुद्धि होती है, वह क्षायिक भाव कहलाता है। इन्द्रिय वाले जीव, चार इन्द्रिय वाले जीव तथा पाँच इन्द्रिय वाले जिस प्रकार पानी से गंदगी पूर्णतः दूर हो जाती है और पानी जीव। दो इन्द्रिय वाले जीव को स्पर्श के साथ रस का भी बोध स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों के सर्वांशतः क्षय हो जाने होता है। तीन इन्द्रियप्राप्त जीवों को स्पर्श, रस तथा गंध का बोध से आत्मा पूर्णरूपेण शुद्ध हो जाती है। उस स्थिति को क्षायिक होता है। चार इन्द्रिय वाले जीवों को स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप भाव कहते हैं।
का बोध होता है। पाँच इन्द्रिय प्राप्त जीवों को स्पर्श, रस, गंध,
- रूप, दृष्टि तथा ध्वनि का बोध होता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य, भाव बनता है। कुछ कर्मों का क्षय हो जाना तथा कुछ कर्मों का पशुप दब जाना क्षायोपशमिक भाव कहलाता है।
जीव के जन्मभेद औदयिक - दबे हुए कमों का उदित हो जाना औदयिक भाव
जीव की चार गतियाँ होती हैं-मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और कहलाता है।
नारक तथा तीन जन्म होते हैं-सम्मर्धन, गर्भ तथा उपपात। मातापारिणामिक - स्वाभाविक ढंग से द्रव्य के परिणमन से जो पिता के बिना ही उत्पत्तिस्थान में स्थित औदारिक पदगलों को भाव बनता है, वह पारिणामिक भाव कहलाता है।
पहले-पहल शरीर रूप में परिणत करना सम्मूर्धन जन्म कहलाता उपर्यक्त पाँचों भाव ही जीव के स्वरूप हैं। जीव के सभी हैं। उत्पत्तिस्थान में शुक्र और शोणित पुद्गलों को पहले-पहल पर्याय इन भावों में से किसी न किसी भाव वाले होते हैं। लेकिन शरीर के लिए ग्रहण करना गर्भ जन्म कहलाता है। उत्पत्तिस्थान पाँचों भाव सभी जीवों में एक साथ नहीं हो सकते हैं।
में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को पहले पहल शरीर रूप में परिणत
करना उपपात जन्म कहलाता है२३। जरायुज, अण्डज, पोतज जीव के विभाग
प्राणियों का गर्भ जन्म होता है, नारक और देवों का उपपात जीव को मख्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है जन्म होता है। शेष सभी प्राणियों का सम्मर्धन जन्म होता है। संसारी तथा मुक्त। जो जीव शरीर धारण कर कर्मबंधन के शालीन कारण नाना योनियों में भ्रमण करता है. वह सांसारिक जीव कहलाता है और जो सभी प्रकार के कर्मबंधनों से छूट जाता है,
जिसमें बोधगम्यता, चेतना आदि का अभाव होता है वह वह मुक्त जीव कहलाता है। संसारी जीव शरीर से भिन्न नहीं
अजीव कहलाता है। अजीव शब्द से ही प्रतीत होता है कि जो होता। यथा दूध में पानी, तिल में तेल आदि ये एक से प्रतीत कुछ
कुछ जीव में है, उसका अभाव होना। अजीव के चार प्रकार होते हैं ठीक वैसे ही संसारदशा में जीव और शरीर एक लगते हैं।
___ होते हैं--धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल। लेकिन ये संसारी आत्माएँ कर्मबद्ध होने के कारण अनेक योनियों धर्म - जो जीव पुद्गल आदि की गति में सहायता प्रदान में परिभ्रमण करती है और उनका फल भोगती है।९। मुक्त आत्माओं करता है, उसे धर्म तत्त्व कहते हैं। जैसे मछली पानी में स्वतः का इन सबसे कोई सम्बन्ध नहीं होता है। उनका शरीर, शरीरजन्य तैरती है, किन्तु पानी के अभाव में वह कदापि नहीं तैर सकती। क्रिया तथा जन्म और मृत्यु कुछ भी नहीं होता। वे आत्मस्वरूप यदि उसे उस स्थान पर रख दिया जाए। जहाँ पानी न हो तो हो जाते हैं। अतएव उन्हें शत् - चित्-आनन्द कहा जाता है। निश्चित ही उसकी गति रुक जायेगी। पानी स्वयं मछली को तैरने
संसारी जीव को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया के लिए तैयार नहीं करता फिर भी पानी के अभाव में मछली तैर है- त्रस तथा स्थावर२१। जिसमें गति होती है वह त्रस जीव नहीं सकती। यही गति तत्त्व है। कहलाता है। जिसमें गति नहीं होती है वह स्थावर जीव कहलाता
अधर्म---अगति तथा स्थिति में सहायक होता है। जीव है। स्थावर जीवों में जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा वनस्पति ,
और पुद्गल जब स्थिति की दशा में पहुंचने वाले होते हैं तब आते हैं। इन सबमें एकेन्द्रिय स्पर्श बोध होता है। इसी तरह
अधर्म उनकी सहायता करता है। इसके बिना स्थिति नहीं हो
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